श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
अन्यथा इसके अतिरिक्त अन्य किसी उपाय से ये इन्द्रियाँ वशीभूत नहीं होतीं। हे अर्जुन! जो लोग इन इन्द्रियों का निग्रह करने के लिये प्रयत्नशील हैं, जो लोग अपने चतुर्दिक् यम-नियमों का घेरा लगाये रहते हैं और जो मन को सदा अपनी मुट्ठी में कैद किये हुए रखते हैं, उन्हें भी ये इन्द्रियाँ हमेशा व्याकुल किये रहती हैं; इन इन्द्रियों का पराक्रम इतना गहन है। जैसे यक्षिणी मन्त्रवेत्ता को भ्रमित कर देती है, वैसे ही ये विषय भी ऋद्धि-सिद्धि के वेष में आते हैं और इन्द्रियों को स्पर्श करके मनुष्य को पलभर में भ्रमित कर देते हैं। उस समय मनुष्य का मन पर से नियन्त्रण हट जाता है और वह अभ्यास त्यागकर तथा निश्चिन्त होकर बैठ जाता है। इन्द्रियों की शक्ति ऐसी विलक्षण होती है।[1]
इसलिये हे पार्थ! मैं कहता हूँ कि विषयों का लोभ पूर्णतः त्यागकर जो मनुष्य इन्द्रियों का सर्वथा दमन करता है, वही योगनिष्ठा में समर्थ होता है। विषय-सुख जिस मनुष्य के चित्त को भ्रमजाल में नहीं फँसा सकते, वही अनवरत आत्मबोध से सज्जित होकर रहता है, मुझे अन्तःकरण से कभी भुलाता नहीं और नहीं तो यदि बाहर से देखने में विषयों की संगति भले ही कुछ न हो, पर अन्तःकरण में विषयों का सूक्ष्म अंश भी रह जाय तो सारा-का-सारा सांसारिक प्रपंच ही बचा हुआ जानना चाहिये। जैसे विष की एक बूँद भी पी ली जाय तो वह विष निरंतर बढ़ता जाता है और तब अन्त में वह बेधड़क होकर जीवन का नाश करता है, ठीक वैसे ही यदि मन में इन विषयों की थोड़ी-बहुत आशंका भी शेष रह जाय तो वह सारे विवेक का नाश कर डालती है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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