ज्ञानेश्वरी पृ. 65

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग


ययतो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित: ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन: ॥60॥

अन्यथा इसके अतिरिक्त अन्य किसी उपाय से ये इन्द्रियाँ वशीभूत नहीं होतीं। हे अर्जुन! जो लोग इन इन्द्रियों का निग्रह करने के लिये प्रयत्नशील हैं, जो लोग अपने चतुर्दिक् यम-नियमों का घेरा लगाये रहते हैं और जो मन को सदा अपनी मुट्ठी में कैद किये हुए रखते हैं, उन्हें भी ये इन्द्रियाँ हमेशा व्याकुल किये रहती हैं; इन इन्द्रियों का पराक्रम इतना गहन है। जैसे यक्षिणी मन्त्रवेत्ता को भ्रमित कर देती है, वैसे ही ये विषय भी ऋद्धि-सिद्धि के वेष में आते हैं और इन्द्रियों को स्पर्श करके मनुष्य को पलभर में भ्रमित कर देते हैं। उस समय मनुष्य का मन पर से नियन्त्रण हट जाता है और वह अभ्यास त्यागकर तथा निश्चिन्त होकर बैठ जाता है। इन्द्रियों की शक्ति ऐसी विलक्षण होती है।[1]


तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर: ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥61॥

इसलिये हे पार्थ! मैं कहता हूँ कि विषयों का लोभ पूर्णतः त्यागकर जो मनुष्य इन्द्रियों का सर्वथा दमन करता है, वही योगनिष्ठा में समर्थ होता है। विषय-सुख जिस मनुष्य के चित्त को भ्रमजाल में नहीं फँसा सकते, वही अनवरत आत्मबोध से सज्जित होकर रहता है, मुझे अन्तःकरण से कभी भुलाता नहीं और नहीं तो यदि बाहर से देखने में विषयों की संगति भले ही कुछ न हो, पर अन्तःकरण में विषयों का सूक्ष्म अंश भी रह जाय तो सारा-का-सारा सांसारिक प्रपंच ही बचा हुआ जानना चाहिये। जैसे विष की एक बूँद भी पी ली जाय तो वह विष निरंतर बढ़ता जाता है और तब अन्त में वह बेधड़क होकर जीवन का नाश करता है, ठीक वैसे ही यदि मन में इन विषयों की थोड़ी-बहुत आशंका भी शेष रह जाय तो वह सारे विवेक का नाश कर डालती है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (310-314)
  2. (315-320)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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