श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग
अब मैं तुमको यह बतलाता हूँ कि ‘क्रोध’ किसे कहते हैं। दूसरों का सुख आसुरी व्यक्तियों के मन को विषवत् कटुजान पड़ता है तथा दूसरों का सुख देखकर वह कुद्ध भी होता है। जैसे खौलते हुए तेल में जल के छींटे पड़ते ही वह तेल भभककर जल उठता है अथवा जैसे चन्द्रदर्शन से श्रृगाल व्याकुल होकर मन में जल-भुन उठता है अथवा विश्व के जीवन-स्वरूप और उसे उज्ज्वल करने वाले सूर्य के उदय होते ही पापी ऊलूक की आँखें फूट जाती हैं अथवा जगत् को आनन्द प्रदान करने वाला प्रातःकाल जैसे चोरों के लिये मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायक होता है अथवा जैसे सर्प के उदर में पहुँचकर दूध भी विष बन जाता है, जैसे समुद्र के अपार जल से बड़वाग्नि और भी अधिक प्रज्वलित होती है और चाहे कितने ही उपाय क्यों न किये जायँ, पर फिर भी वह शान्त होने का नाम भी नहीं लेती, ठीक वैसे ही दूसरे की विद्या और सुख इत्यादि ऐश्वर्य देखकर यदि किसी का क्रोध भड़क उठे तो इसी मनोवृत्ति को क्रोध कहते हैं। अब मैं ‘पारुष्य’ के लक्षणों की व्याख्या करता हूँ। जिसका मन मानो सर्प की बिल हो, नेत्र मानो वाणी की सनसनाहट के सदृश हों तथा बातें बिच्छुओं की वृष्टि की भाँति हों और शेष क्रियाएँ फौलाद के आरे के सदृश हों, तात्पर्य यह कि जिसका बाह्याभ्यन्तरस्वरूप इस प्रकार प्रखर होता है, उस व्यक्ति केा मानव-जाति में अधम कोटि का जानना चाहिये। यह तो हुई पारुष्य की बात। अब ‘अज्ञान’ के लक्षण सुनो। पाषाण को जैसे ठंडे और गरम स्पर्श का भेद नहीं जान पड़ता अथवा जैसे जन्म से अन्धे व्यक्ति को अहर्निश के अन्तर का पता नहीं चलता अथवा अग्नि जब एक बार भड़ककर खाने लगती है, तब वह खाद्य और अखाद्य का तथा विधि अथवा निषेध का कुछ भी विचार नहीं करती अथवा पारस पत्थर जैसे लौह और स्वर्ण में कोई भेदभाव नहीं करता अथवा भिन्न-भिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों में संचार करने पर भी कड़छी जैसे उनमें से किसी का रसास्वादन नहीं कर सकती, अथवा वायु जैसे टेढ़े-मेढ़े तथा सीधे मार्गों का अन्तर नहीं जानती, ठीक वैसे ही जिस अवस्था में पुरुष कर्तव्याकर्तव्य के विषय में अन्धा रहता है, स्वच्छ और मलिन का भेद नहीं जानता, पाप और पुण्य सबको मिलाकर ठीक वैसे ही निगल जाता है, जैसे बालक हस्तगत भली और बुरी समस्त चीजें मुँह में डाल लेता है और जो-जो इस प्रकार की घृणाहीन अवस्था होती है कि उसमें बुद्धि को इसका ज्ञान ही नहीं होता कि मधुर क्या है और कड़वा कैसा होता है, उसी अवस्था को अज्ञान नाम से पुकारते हैं। इसमें शंका के लिये रत्तीभर भी जगह नहीं है। |
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