ज्ञानेश्वरी पृ. 626

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-16
दैवासुर सम्पद्वि भाग योग

इस प्रकार षट् दोषों का यह विवरण किया गया है। जैसे सर्प का शरीर चाहे छोटा ही क्यों न हो, पर फिर भी उसमें भयंकर विष रहता है अथवा यदि अग्नियों की श्रेणी देखी जाय तो प्रलयाग्नि, विद्युदग्नि और बड़वाग्नि-इन तीन अग्नियों की संख्या अत्यल्प जान पड़ती हैं, पर ये अग्नियाँ यदि भड़क उठें तो इनकी आहुति के लिये समस्त संसार भी पूरा नहीं होता, वैसे ही ये दोष भी गिनती में तो सिर्फ छः ही हैं, पर इनके योग से आसुरी सम्पत्ति को अत्यधिक बल प्राप्त होता है जैसे सुन्दर स्त्री कृशकाय भी हो तो भी उसमें कामवासना अधिक होती है। यदि व्यक्ति के शरीर में त्रिदोष इकट्ठे हो जायँ तो फिर चाहे स्वयं ब्रह्मा के ही पैर क्यों न जाकर पकड़े जायँ, पर फिर भी मृत्यु से पिण्ड नहीं छूट सकता। किन्तु ये दोष तो छः अर्थात् उस तीन से दूने हैं।

इन्हीं षट् दोषों की नींव पर आसुरी सम्पत्ति की अट्टालिका पड़ी हुई है; इसीलिये वह कमजोर होती ही नहीं। इसके विपरीत जैसे कभी-कभी समस्त पापग्रह एक ही राशि पर आसीन होते हैं अथवा निन्दा करने वाले के संग्रह में सभी पाप आकर पहुँच जाते हैं, अथवा जिसका मृत्युकाल सन्निकट होता है, उस पर जैसे समस्त रोग एकदम से आकर टूट पड़ते हैं अथवा जैसे अशुभ दिन में समस्त दुष्टयोग इकट्ठे हो जाते हैं अथवा जैसे विश्वास रखने वाले और निश्चिन्त रहने वाले व्यक्ति को चोर को सौंप दिया जाता है अथवा जैसे कोई श्रान्त व्यक्ति बाढ़ में ढकेल दिया जाता है, ठीक वैसे ही ये षट् दोष अघोर कृत्य करते हैं अथवा जैसे बकरी की आयु पूरी हो जाने पर उसे सात डंकों वाला बिच्छू काटता है, वैसे ही ये षट् दोष भी मनुष्य को डँसते हैं। मोक्ष-मार्ग की ओर जरा-सी प्रवृत्ति होने पर भी जो यह कहकर सांसारिक कलह-कोलाहल में डूब जाता है कि मैं इस मार्ग पर नहीं चलूँगा। जो अधम योनियों की सीढ़ियाँ उतरता हुआ अन्ततः स्थावरों से भी नीचे जा बैठता है, उसी में ये षट् दोष इकट्ठे होकर आसुरी सम्पत्ति को बलवान् बनाते हैं। इस प्रकार मैंने इन दोनों ही सम्पत्तियों के समस्त लक्षण पृथक्-पृथक् स्पष्ट कर दिये हैं।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (217-264)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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