श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
जैसे वर्षा काल के आरम्भ की वायु चारों ओर से चलती है और इसका ज्ञान ही नहीं हो पाता कि यह हवा आगे की ओर आ रही है अथवा पीछे की ओर से, वैसे ही इस संसार-वृक्ष की भी वास्तविक और सच्ची स्थिति नहीं है; न तो इसका आदि है, न अन्त है, न स्थिति है और न रूप है। फिर भला इसे उखाड़ फेंकने के लिये अत्यधिक श्रम की आवश्यकता है? इसकी बलवत्ता एकमात्र हमारे अज्ञान के कारण ही है। अत: इसे आत्मज्ञानरूपी कुल्हाड़ी से काटकर गिरा देना चाहिये। इसे गिराने के लिये ज्ञान को छोड़कर तुम जितने भी उपाय करोगे, वे सभी तुम्हें इस वृक्ष में और भी अधिक उलझावेंगे। फिर तुम शाखा-प्रतिशाखा, ऊपर-नीचे कहाँ तक भ्रमण करते रहोगे? हाँ, यदि तुम सत्यज्ञान के साधन से इसके मूल में स्थित अज्ञान का ही नाश कर डालोगे तो सारा-का-सारा काम स्वतः ही हल हो जायगा। रस्सी को सर्प समझकर उसे मारने के लिये लकड़ी लेकर इतस्ततः घूमने की ही भाँति क्या यह समस्त श्रम व्यर्थ नहीं है? जो मृगजल को महानदी समझकर उसे पार करने के लिये नौका तलाश करने के उद्देश्य से वन में इतस्ततः भटकता है, वह वास्तव में किसी नाले में गिरकर डूब जाता है। ठीक इसी प्रकार इस मिथ्या संसार का नाश करने के लिये जो नाना प्रकार की विवेचनाएँ करता है, जो आत्मज्ञान से शून्य रहता है, उसका संसार विषयक भ्रम निरन्तर बढ़ता ही जाता है। इसलिये हे धनंजय! जैसे स्वप्न में लगने वाले घाव को ठीक करने की एकमात्र औषधि जाग्रत् होना है, वैसे ही इस अज्ञान मूल का विनाश करने के लिए एकमात्र ज्ञानरूपी तलवार ही समर्थ है और यह कुठार ज्यों-ज्यों चलायी जाती है, त्यों-त्यों बुद्धि का वैराग्यरूपी नूतन शक्ति प्राप्त होती है। ज्यों ही वैराग्य का उदय होता है त्यों ही धर्म, अर्थ और काम इन तीनों से व्यक्ति का वैसे ही पिण्ड छूट जाता है, जैसे श्वान वमन करके जाता है। |
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