श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग
व्यवहार-ज्ञान की दृष्टि भी जिस परदे के कारण मन्द हो जाती है, जो मोहरूपी अँधेरी रात्रि के घर काले मेघों की भाँति है, जिसमें अज्ञान का ही जीवन सदा लगा रहता है, जिसके भुलावे में पड़कर यह विश्व मदान्ध होकर नृत्य करता रहता है, जो अविवेक का महामन्त्र है, जो मूर्खता रूपी मद्यपात्र है, यहाँ तक कि जो जीवों के लिये एकमात्र मोहनास्त्र हो गया है, हे पार्थ, वही तम है। वह अपनी युक्ति से देह को ही आत्मा मानने वालों को चारों ओर से कसकर बाँध लेता है। जब वह चराचर में एक बार बढ़ने लगता है, तब वहाँ किसी अन्य गुण का कुछ भी वश नहीं चलता। इसके कारण समस्त इन्द्रियाँ जड़ता का शिकार हो जाती है, मूर्खता मन को दबोच लेती है और आलस्य अपना पाँव फैलाने लगता है। तब वह जीव अपने अंगों को ऐंठने लगता है, काम-काज में उसका मन नहीं लगता है और उसे सिर्फ जँभाइयों-पर-जँभाइयाँ आने लगती हैं। हे किरीटी! उस दशा में आँखें खुली रहने पर भी उस जीव को कुछ भी दृष्टिगत नहीं होता, यहाँ तक कि बिना आवाज दिये ही वह आप-ही-आप ‘हाँ’ कहकर उठ खड़ा होता है। जैसे पत्थर एक बार जमीन पर गिरने के उपरान्त कभी अपनी जगह से टस-से-मस होना नहीं जानता, वैसे ही जब वह व्यक्ति एक बार पड़ जाता है, तब फिर वह करवट बदलना भी नहीं जानता। पृथ्वी चाहे रसातल चली जाय और चाहे आकाश तक पहुँच जाय, पर वह पाषाणवत् टस-से-मस नहीं होता। जब वह एक बार आलस्य में पड़ जाता है, तब उसे उचित-अनुचित का खयाल ही नहीं रह जाता; वह एकमात्र जहाँ-का-तहाँ पड़ा रहना ही चाहता है। |
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