ज्ञानेश्वरी पृ. 527

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग


रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम्।।7।।

जीवात्मा का रंजन करने के कारण इसे रज कहते हैं। यह सदा विषय वासनाओं से लिप्त रहता है। जब यह रज थोड़ा-सा भी जीवात्मा में अपनी पैठ बना लेता है, तब वह विषय-भोग की इच्छा के मार्ग पर चल पड़ता है तथा वासना की वायु पर सवार हो जाता है। जैसे घृत से सिंचित और अंगारों से परिपूर्ण हवनकुण्ड सदा थोड़ा-बहुत सुलगता ही रहता है, वैसे ही विषयों के प्रति होने वाला अनुराग भी निरन्तर बना रहता और बढ़ता चलता है, दुःख से भरा हुआ विषय भी मधुर जान पड़ता है और यदि स्वयं इन्द्र का भी ऐश्वर्य प्राप्त हो जाय तो भी वह अत्यल्प ही जान पड़ता है। जिस समय यह तृष्णा बलवती हो जाती है, उस समय यदि मेरुगिरि भी हाथ आ जाय तो विषयों की प्राप्ति के लिये जीव उससे भी कहीं अधिक भयंकर साहस का कृत्य करने को तत्पर हो जाता है। ऐसे कार्यों के लिये वह अपने प्राण निछावर करने के लिये भी उद्यत हो जाता है और यदि उस प्रयत्न में एक तिनका भी उसके हाथ लग जाता है तो वह अपना जीवन धन्य मानने लगता है। वह सोचता है कि वर्तमान में मेरे पास जो कुछ है, वह सब यदि मैं आज ही उड़ा दूँ तो भी कोई बात नहीं है, पर कल क्या करूँगा? और इस प्रकार की आशा मन में पालकर वह अपने व्यवहार का विस्तार करता है। वह स्वर्ग जाना तो उचित समझता है, परन्तु वह सोचता है कि वहाँ जाने पर खाऊँगा क्या?

इसी चिन्ता के कारण वह यज्ञ कर्मों के चक्कर में पड़ता है। अब वह व्रतों और अनुष्ठानों का क्रम प्रारम्भ करता है, कुएँ, तालाबों आदि का निर्माण करवाता है तथा इष्टपूर्ति के कृत्य करता है। पर चित्त में कामिक वासना रखे बिना वह कभी कोई कार्य सम्पन्न नहीं करता। ग्रीष्म-ऋतु की वायु की भाँति वह जीव कभी विश्राम करना नहीं जानता और अहर्निश व्यवहार की धुन में लगा रहता है। दिन-रात वासनाओं के चक्कर में पड़ा हुआ वह जीव इतनी तीव्रता से अपने उद्देश्य की सिद्धि में लगता है कि उसके सामने मछली की चंचलता भी अथवा स्त्री के नेत्र-कटाक्ष की चंचलता भी कोई चीज नहीं है। इस प्रकार की विलक्षण धाँधली और वेग से लौकिक और पारलौकिक विषयों का लोभी वह जीव क्रिया-कर्मों की आग में कूद पड़ता है। इस प्रकार वह शरीरधारी जीवात्मा वास्तविक शरीर से भिन्न होने पर भी स्वयं ही वासनाओं की श्रृंखलाएँ अपने गलें में डाल लेता है। इस प्रकार रजोगुण का भयंकर बन्धन इस देह में रहने वाले जीवात्मा को कसकर बाँध लेता है। अब मैं तुमको तमोगुण की बन्धक-शक्ति के बारे में बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (160-173)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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