ज्ञानेश्वरी पृ. 526

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग


तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ।।6।।

त्यों ही सत्त्वरूपी शिकारी सुख और ज्ञान का पाश खींचने लगता है और जीवात्मा उस पाश में मृग की तरह फँसकर छटपटाने लगता है। वह ज्ञान के अभिमान से बड़बड़ाता है, ज्ञातृत्व के कारण तड़फता है और हाथ-लगा आत्मसुख गँवा बैठती है। उस अवस्था में यदि कोई उसकी विद्वत्ता का सम्मान करता है तो उसको बहुत तृप्ति मिलती है; यदि उसे जरा-सा भी सुख की उपलब्धि होती है तो बहुत आनन्द होता है और तब उसे इस बात का अभिमान होने लगता है कि मैं वास्तव में सुखी हूँ। उस समय वह जीवात्मा यह कहता फिरता है कि क्या सचमुच यह मेरा सौभाग्य नहीं है? भला मेरे-जैसा दूसरा कौन सुखी है? इस तरह की बातें कहते-कहते ही उसमें आठों सात्त्विक भावों का वेगपूर्वक संचार होने लगता है; परन्तु यह क्रम यहीं नहीं रुकता; इसमें एक और अड़चन आ खड़ी होती है। वह यह कि विद्वत्ता भूत बनकर उसके सिर पर सवार हो जाती है। उसे इस बात का दुःख नहीं होता कि मैं मूलतः ज्ञान स्वरूप था और मैंने वह अपना मूल स्वरूप खो दिया है। इसका प्रमुख कारण यही है कि वह स्वयं अपने ज्ञान से फूलकर आकाश की तरह हो जाता है। जैसे कोई राजा स्वप्नावस्था में भिक्षुक बन जाता है और उस अवस्था में स्वयं अपनी ही नगरी में प्रवेश करके भिक्षा मिलने पर अपने को इन्द्र के समान सौभाग्यशाली मानने लगता है, वैसे ही हे पाण्डुसुत! निराकार केवलात्मा जब देहवान् जीवात्मा का रूप धारण कर लेती है, तब वह भी बाह्यज्ञान से भ्रमित हो जाता है। वह व्यवहार-कला में निपुण हो जाता है, याज्ञि की विद्या में पारंगत हो जाता है, केवल यही नहीं, अपितु अपने ज्ञान के गर्व के कारण उसे स्वर्ग भी तुच्छ जान पड़ने लगता है। फिर वह अपने ज्ञान की डींग मारने लगता है और कहता है कि मेरे अलावा दूसरा कोई ज्ञानी नहीं है। मेरे चित्त में चातुर्य ठीक उसी प्रकार विलास करता है जिस प्रकार आकाश में चन्द्रमा विलास करता है। इस प्रकार सत्त्वगुण जीवात्मा को सुख और ज्ञान की रस्सी में कसकर बाँध लेता है और उसकी दशा अपाहिज के बैल की भाँति कर देता है। अब तुम यह सुनो कि वही शरीरधारी जीवात्मा रजोगुण से किस प्रकार बाँधा जाता है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (148-159)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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