श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
जैसे बालकों को भ्रमित करने के उद्देश्य से एक ही ग्रास के छोटे-छोटे अनेक ग्रास बनाने पड़ते हैं, वैसे ही मैंने एक ही ब्रह्म को चार भागों में बाँट करके उन सबका पृथक-पृथक् विवेचन किया है। तुम्हारी ग्रहण-शक्ति का अनुमान करके मैंने ब्रह्म के क्षेत्र, ज्ञान, ज्ञेय और अज्ञान- ये चार विभाग किये हैं और हे पार्थ! यदि इतना करने पर भी यह व्यवस्था ठीक तरह से तुम्हारी समझ में न आयी हो तो मैं फिर एक बात तुमको बतलाता हूँ। परन्तु अब मैं ब्रह्म के वे चार विभाग नहीं करता और न उसकी एकता का ही प्रतिपादन करता, अपितु आत्मा और अनात्मा का एक साथ ही विचार करता हूँ। किन्तु जो कुछ मैं तुमसे माँगता हूँ, वह देने के लिये तुम्हें तैयार रहना चाहिये। मेरी माँग सिर्फ यही है कि तुम मनोयोगपूर्वक मेरी बात सुनो।” भगवान् की ये बातें सुनकर पार्थ रोमांचित हो उठा। उस समय देव ने कहा कि तुम इस प्रकार प्रेम विह्वल मत होओ। इस प्रकार अर्जुन का हृदय भर आया, तब भगवान् ने कहा- “अब मैं तुमको प्रकृति और पुरुष के बारे में बतलाता हूँ।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (939-956)
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