ज्ञानेश्वरी पृ. 495

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग


इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भवायोपपद्यते।।18।।

हे सुहृत! इस प्रकार मैंने तुमको क्षेत्र के बारे में तो पहले ही बतला दिया है और इस प्रकरण में ज्ञान के लक्षण भी स्पष्ट रूप से बतला दिया है। फिर अज्ञान के स्वरूप का तो मैंने इतना विस्तारपूर्वक वर्णन किया है कि जिसे सुनते-सुनते तुम चकित हो गये और अब मैंने तुम्हें ज्ञेय का स्वरूप भी स्पष्ट करके बतला दिया है। हे अर्जुन! जब ये सब बातें मेरे भक्तों के समझ में अच्छी तरह आ जाती है, तब उनके मन में मुझे पाने की उत्कण्ठा जाग्रह हो उठती है। जो लोग देह इत्यादि समस्त विषयों का परित्याग करके अपने प्राण मेरी सेवा में समर्पित कर देते हैं, हे किरीटी! वे मेरा ब्रह्म-स्वरूप पहचानकर अन्ततः अपना व्यक्तित्व भी भुला बैठते हैं और मुझमें समाकर मद्रूप हो जाते हैं। तुम यह अच्छी तरह से समझ रखो कि मैंने तुम्हें मद्रूप होने का बहुत ही सरल उपाय बतला दिया है। जैसे शिखर पर आरोहण करने के लिये सीढ़ियाँ बनानी पड़ती हैं अथवा ऊँचे होने के लिये मंच का निर्माण करना पड़ता है अथवा बाढ़ आने की दशा में डूबने से बचने के लिये नौका की जरूरत होती है, वैसे ही मद्रूप होने के लिये भी ये सब काम करने आवश्यक होते हैं। नहीं तो, हे वीर शिरोमणि! यदि सिर्फ यह कह दिया जाय कि सब कुछ आत्मा ही है, तो ऐसे कथन से तुम्हारे चित्त को कभी संतोष न होगा। इसीलिये मैंने तुम्हारी मति-मन्दता को दृष्टि में रखकर एक ही परब्रह्म के चार विभाग करके उन सबका पृथक-पृथक् विवेचन किया है।

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः