श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
हे सुहृत! इस प्रकार मैंने तुमको क्षेत्र के बारे में तो पहले ही बतला दिया है और इस प्रकरण में ज्ञान के लक्षण भी स्पष्ट रूप से बतला दिया है। फिर अज्ञान के स्वरूप का तो मैंने इतना विस्तारपूर्वक वर्णन किया है कि जिसे सुनते-सुनते तुम चकित हो गये और अब मैंने तुम्हें ज्ञेय का स्वरूप भी स्पष्ट करके बतला दिया है। हे अर्जुन! जब ये सब बातें मेरे भक्तों के समझ में अच्छी तरह आ जाती है, तब उनके मन में मुझे पाने की उत्कण्ठा जाग्रह हो उठती है। जो लोग देह इत्यादि समस्त विषयों का परित्याग करके अपने प्राण मेरी सेवा में समर्पित कर देते हैं, हे किरीटी! वे मेरा ब्रह्म-स्वरूप पहचानकर अन्ततः अपना व्यक्तित्व भी भुला बैठते हैं और मुझमें समाकर मद्रूप हो जाते हैं। तुम यह अच्छी तरह से समझ रखो कि मैंने तुम्हें मद्रूप होने का बहुत ही सरल उपाय बतला दिया है। जैसे शिखर पर आरोहण करने के लिये सीढ़ियाँ बनानी पड़ती हैं अथवा ऊँचे होने के लिये मंच का निर्माण करना पड़ता है अथवा बाढ़ आने की दशा में डूबने से बचने के लिये नौका की जरूरत होती है, वैसे ही मद्रूप होने के लिये भी ये सब काम करने आवश्यक होते हैं। नहीं तो, हे वीर शिरोमणि! यदि सिर्फ यह कह दिया जाय कि सब कुछ आत्मा ही है, तो ऐसे कथन से तुम्हारे चित्त को कभी संतोष न होगा। इसीलिये मैंने तुम्हारी मति-मन्दता को दृष्टि में रखकर एक ही परब्रह्म के चार विभाग करके उन सबका पृथक-पृथक् विवेचन किया है। |
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