ज्ञानेश्वरी पृ. 432

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

जिस ज्ञान के लिये योगी लोग स्वर्ग का कठिन मार्ग पार करके आकाश को भी निगल जाते हैं, ऋद्धि-सिद्धि के चक्कर में न पड़कर योग-साधना जैसी दुःसाध्य बात भी सहते हैं, तपों के दुर्गम पहाड़ पार करते हैं, कोटि यज्ञों को निछावर कर देते हैं और कर्मकाण्ड रूपी बेल को उखाड़ फेंकते हैं अथवा बड़े आवेश से भजन-मार्ग में कूद पड़ते हैं तथा कोई-कोई सुषुम्ना की सुरंग तक में घुस जाते हैं और इस प्रकार जिस ज्ञान को पाने के लिये मुनियों की आशा पूर्ण इच्छा वेद-वृक्ष के पत्ते-पत्ते पर चक्कर लगाया करती है और हे अर्जुन! जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिये इस आशा से सैकड़ों जन्म गुरु की सेवा में व्यतीत किये जाते हैं कि कभी तो वे अनुकम्पा करेंगे, जिस ज्ञान के मिलने पर मोह पूर्णतया नष्ट हो जाता है, जो ज्ञान जीव को शिव के साथ मिला देता है, जो ज्ञान इन्द्रियों का द्वार बन्द करता है, प्रवृत्ति के पाँव तोड़ डालता है और मन का संताप मिटा देता है, जिसके कारण द्वैत का अकाल पड़ जाता है और सम्भावना अथवा ऐक्य का सुकाल होता है, जो ज्ञान-मद का नामोनिशान मिटा देता है, महामोह को ग्रस लेता है तथा द्वैत का यह भाव कहीं रहने नहीं देता कि यह मैं हूँ और वह पराया है। जो संसार को निर्मूल कर डालता है, संकल्प रूपी कीचड़ धो डालता है और ज्ञेय वस्तु अर्थात् परमात्म तत्त्व से उसकी भेंट करा देता है, जिसका सामान्यतः आकलन करना भी अत्यन्त कठिन होता है, जिसका उदय होते ही जगत् को संचालित करने वाले प्राण पंगु हो जाते हैं, जिस ज्ञान के प्रकाश से बुद्धि के नेत्र खुल जाते हैं और जीव आनन्द पुंज पर लोटने लगता है, जो ज्ञान परम पावन है, दोषों से भरा हुआ मन जिस ज्ञान के कारण निर्मल हो जाता है, जिसके योग से आत्मा को लगा हुआ जीव भाव वाला क्षय रोग एकदम ठीक हो जाता है, यद्यपि उस ज्ञान का निरूपण करना सम्भव नहीं है। पर फिर भी मैं उसका निरूपण करता हूँ।

ज्ञान का यह निरूपण सुनकर बुद्धि से ही उसे समझना चाहिये, कारण कि बिना बुद्धि के और सिर्फ आँखों से वह कभी दृष्टिगोचर ही नहीं हो सकता। पर जब एक बार बुद्धि के पकड़ में वह आ जाता है और इस शरीर पर वह अपना अधिकार जमा लेता है, तब वह इन्द्रियों की क्रियाओं के रूप में आँखों को भी दृष्टिगत होने लगता है। जैसे वृक्षों के हरे-भरे होने से वसन्त-ऋतु के शुभागमन का पता चलता है, वैसे ही इन्द्रियों के व्यापार को देखकर ज्ञान का भी अनुमान किया जा सकता है। वृक्षों की जड़ को पृथ्वी के गर्भ में भी जल मिल जाता है और तब वह जल शाखाओं के पत्तों में भी अपना प्रभाव दिखलाता है अथवा सुंदर अंकुरों को देखने से भी पृथ्वी में रहने वाली मृदुता का पता चलता है अथवा कुलीन व्यक्तियों का महत्त्व उनके आचरण से ही समझ में आ जाता है। जब व्यक्ति किसी का सत्कार करने में अत्यधिक व्यस्त होता है, तब उसकी उसी व्यस्तता से उसका स्नेह प्रकट होता है अथवा व्यक्ति के पुण्यशील होने का पता उसके शान्त और दिव्य आकृति से ही मिल जाता है अथवा जब केले में कपूर भर जाता है, तब चतुर्दिक् फैलने वाली सुगन्ध से ही इस बात का ज्ञान हो जाता है कि केले में कपूर भर गया है अथवा काँच के अन्दर रखे हुए दीपक का प्रकाश चतुर्दिक् फैल जाता है। इसी प्रकार जब व्यक्ति के हृदय में ज्ञान भर जाता है, तब बाहर भी उसके अनेक लक्षण प्रकट होने लगते हैं। अब मैं वही लक्षण तुमको बतलाता हूँ, मन लगाकर सुनो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (72-183)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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