ज्ञानेश्वरी पृ. 38

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता: ॥11॥

फिर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-“आज जो तुमने असमय ही यह बखेड़ा कर दिया है, उससे सचमुच मुझे विस्मय ही हो रहा है। वैसे तो तुम यह कहते हो कि मैं स्वयं को अच्छी तरह से जानता हूँ, पर फिर भी तुम अज्ञान का दामन पकड़े हुए हो और जब मैं तुम्हें कुछ सिखाने-समझाने की चेष्टा करता हूँ, तब तुम नीति की डींगें हाँकने लगते हो। जिस प्रकार कोई जन्मान्ध हो और फिर तिस पर से सनक भी सवार हो जाय तथा यहाँ-वहाँ बहकने लगे, बस, ठीक उसी प्रकार तुम्हारी बुद्धि भी मुझे यहाँ-वहाँ बहकती हुई जान पड़ती है। मुझे बार-बार यही विस्मय होता है कि तुम अपने-आपको तो कुछ जानते ही नहीं और स्वयं चले कौरवों के लिये शोक करने।

पर हे अर्जुन! सबसे पहले तुम मुझे यह समझाओ कि यदि यह तीनों लोक तुम्हारे ही कारण स्थिर हो तो लोग जो यह कहते हुए नहीं अघाते हैं कि इस संसार की रचना अनादि है, वह क्या एकदम मिथ्या ही है? विश्व में यह जो प्रसिद्ध है कि यहाँ कोई एक ही सर्वशक्तिमान् है तथा उसी से जीव मात्र की उत्पत्ति होती है, तो क्या इन सब बातों की व्यर्थ में ही प्रसिद्धि है? क्या सचमुच आज ऐसी यह दशा हो गयी है कि इस सृष्टि का जीवन-मरण अब तुम्हारे ही अधीन है? भइया अर्जुन! अब जरा सोचो। तुम भ्रममूलक अहंकार के अधीन हो गये और यही कारण है कि इन कौरवों का वध करना तुम्हें रुचिकर नहीं लगता, किन्तु तुम मुझे सिर्फ एक प्रश्न का उत्तर साफ-साफ बतलाओ। यदि तुम इन कौरवों का वध नहीं करोगे, तो क्या ये लोग दीर्घजीवी हो जायँगे? अथवा क्या तुमने सचमुच अपने मन में यह भ्रम पाल लिया है कि एकमात्र तुम्हीं मारने वाले हो, बाकी ये सब लोग मरने वाले हैं? यह संसार तो अनादिकाल से चला आ रहा है। इसका उत्पन्न होना और नष्ट होना सृष्टि के नियमों के ही अधीन है। फिर तुम मुझे यह बतलाओ कि तुम इसके लिये शोक क्यों करते हो? किन्तु अज्ञानतावश तुम्हारी समझ में कोई बात आती ही नहीं, तुम मन में बेकार बातों का चिन्तन करने लगते हो और उलटे मुझको ही नीति के लम्बे-चौड़े पाठ पढ़ाते हो। देखो, जो लोग विवेकी होते हैं, वे स्वतः जान लेते हैं कि जीवन और मरण केवल भ्रान्ति ही है। इसीलिये वे उत्पत्ति और विनाश इन दोनों में से किसी के लिये भी शोक नहीं करते।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (91-102)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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