ज्ञानेश्वरी पृ. 37

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरूभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच:॥10॥

हृषीकेश श्रीकृष्ण मन-ही-मन कहने लगे-“मतिभ्रम अर्जुन ने इस समय न जाने कौन-सा झंझट लाकर खड़ा कर दिया है! इसे इस समय कुछ भी समझ में नहीं आता कि क्या करें और क्या न करें? अब इसे किस तरह समझायें? इसका छूटा हुआ जो धीरज है, पता नहीं वह फिर इसे कैसे धारण करेगा?” श्रीकृष्ण ने अपने मन-ही-मन में ये बातें ठीक वैसे ही कहीं, जैसे कोई पंचाक्षरी मन्त्रवेत्ता भूत भगाने के लिये अपने मन में कहता है अथवा जैसे रोग को इलाज समझकर किसी अति विकट समय पर कोई वैद्य तुरन्त अमृत की भाँति किसी विलक्षण औषधि का संयोजन करता है, ठीक वैसे ही भगवान् ने दोनों दलों के मध्य में खड़े होकर अपने मन में यह सोचा कि अब मुझे क्या करना चाहिये और तब वे यह विचार करने लगे कि ऐसा कौन-सा उपाय किया जाय जिससे अर्जुन की यह भ्रान्ति दूर हो। यही विचारकर उन्होंने कुछ क्रोधित होकर कहनाा शुरु किया। जैसे माता के कोप में भी ममता छिपी रहती है या जैसे दवा की कड़वाहट में अमृत अदृश्य रहता है-क्योंकि वह अमृत प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं दीखता, पर अन्त में उसका अनुभव होता है-ठीक वैसे ही भगवान् ने भी कुछ इसी प्रकार की बातें कहना शुरू किया जो प्रकट रूप से तो कुछ अपमानजनक प्रतीत होती थीं, पर थीं वे अन्दर से सुमधुर।”[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (84-90)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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