श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:। हे अर्जुन! मेरी बातों को ध्यानपूर्वक सुनो। यदि हम यह मान लें कि तुम, मैं और यहाँ जो राजागण आये हुए हैं, वे सब इस समय जिस स्थिति में हैं, उनकी वही स्थिति ज्यों-की-त्यों सदा बनी रहेगी। या हम ये मान लें कि हम सब लोग एक-न-एक दिन निश्चय ही क्षय को प्राप्त हो जायँगे, तो ये दोनों ही मान्यताएँ भ्रम से भरी हुई हैं; और यदि इस तरह के सोच ही त्याग दिये जायँ तो फिर जीना और मरना, ये दोनों ही बातें सरासर झूठी ही ठहरती हैं। यह जो मन में बार-बार विचार आते हैं कि ये लोग जन्मते और मरते हैं, उसका एकमात्र कारण माया ही; अन्यथा यथार्थ दृष्टि से देखने पर यही ज्ञात होता है कि जो मूल तत्त्व है, वह अविनाशी ही है। देखो, जब वायु के बहने से जल हिलकर तरंगित हो उठता है, तब वहाँ यथार्थतः किसकी उत्पत्ति होती है; और जब वायु का स्फुरण शान्त हो जाता है तथा वह जल फिर शान्त और समतल हो जाता है, तब वहाँ किसका विनाश होता है। बस, अब तुम इन्हीं सब बातों का विचार करो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (103-107)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |