ज्ञानेश्वरी पृ. 39

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम् ॥12॥

हे अर्जुन! मेरी बातों को ध्यानपूर्वक सुनो। यदि हम यह मान लें कि तुम, मैं और यहाँ जो राजागण आये हुए हैं, वे सब इस समय जिस स्थिति में हैं, उनकी वही स्थिति ज्यों-की-त्यों सदा बनी रहेगी। या हम ये मान लें कि हम सब लोग एक-न-एक दिन निश्चय ही क्षय को प्राप्त हो जायँगे, तो ये दोनों ही मान्यताएँ भ्रम से भरी हुई हैं; और यदि इस तरह के सोच ही त्याग दिये जायँ तो फिर जीना और मरना, ये दोनों ही बातें सरासर झूठी ही ठहरती हैं। यह जो मन में बार-बार विचार आते हैं कि ये लोग जन्मते और मरते हैं, उसका एकमात्र कारण माया ही; अन्यथा यथार्थ दृष्टि से देखने पर यही ज्ञात होता है कि जो मूल तत्त्व है, वह अविनाशी ही है। देखो, जब वायु के बहने से जल हिलकर तरंगित हो उठता है, तब वहाँ यथार्थतः किसकी उत्पत्ति होती है; और जब वायु का स्फुरण शान्त हो जाता है तथा वह जल फिर शान्त और समतल हो जाता है, तब वहाँ किसका विनाश होता है। बस, अब तुम इन्हीं सब बातों का विचार करो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (103-107)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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