श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
जिस व्यक्ति ने पूरे मनोयोग से अपने चित्त को मुझे अर्पित कर दिया है, जो उसी प्रकार मेरे अलावा अन्य किसी को भी अच्दा नहीं समझता, जिस प्रकार गर्भाशय का पिण्ड अन्य कोई व्यापार नहीं जानता और जिसे सारे जीवन का ही ज्ञान मेरे नाम के रूप में होता है और इस प्रकार जो अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करता है तथा मेरी उपासना करता है, उसी की मैं भी निरन्तर सेवा करता रहता हूँ। जिस समय वह पूरे मनोयोग से एकीकरण करके मेरी उपासना का मार्ग स्वीकार कर लेता है, उसी समय से उसकी चिन्ता मुझे सताने लगती है। जब जो-जो कार्य उसके लिये अभीष्ट होते हैं, वे सब मुझे ही करना पड़ता है। पक्षिणी अपने उन्हीं बच्चों के लिये अपना जीवन धारण करती है, जिन बच्चों के अभी तक पंख नहीं निकले होते। वह अपने बच्चों के भले के लिये ही बस काम करती है। यहाँ तक कि इनकी देख-रेख के पीछे अपनी भूख-प्यास भी भूल जाती है। इसी प्रकार जो लोग मुझ पर भरोसा रखकर मेरी उपासना करते हैं, उनकी सब प्रकार से देख-रेख मैं ही करता हूँ। यदि वे मोक्ष की रुचि रखते हैं, तो उनकी वह रुचि भी मैं ही पूरी करता हूँ और यदि उन्हें मेरी सेवा ही रुचिकर लगती है तो मैं उन्हें प्रेम का दान देता हूँ। इस प्रकार वे लोग अपने मन में जिन-जिन बातों की कामना करते हैं, वे सब मैं उन्हें बार-बार देने लगता हूँ। इतना ही नहीं, उन्हें जो कुछ मैं देता हूँ, उसकी रक्षा भी मुझे ही करनी पड़ती है। हे पाण्डव! उनकी समस्त क्रियाएँ मुझ पर ही अवलम्बित रहती हैं, इसलिये उनका योगक्षेम मुझे ही वहन करना पड़ता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (335-343)
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