ज्ञानेश्वरी पृ. 279

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥23॥

इसके अलावा और भी बहुत-से सम्प्रदाय हैं, पर उनके अनुगामी मेरा सर्वव्यापक रूप नहीं जानते। वे अग्नि, इन्द्र, सूर्य और सोम के प्रीत्यर्थ यजन करते हैं। वे यजन भी मुझे ही मिलते हैं, कारण कि यह समस्त विश्व मैं ही हूँ। परन्तु यह मेरे भजन का सुगम मार्ग नहीं है, बल्कि, टेढ़ा-मेढ़ा है। देखो, वृक्ष की शाखाएँ और पल्लवादि सब एक ही बीज से उत्पन्न होते हैं, पर सबके लिये जल ग्रहण करने की क्रिया जड़ ही करती है, इसलिये जड़ में ही जल डालना उचित होता है अथवा व्यक्ति के देह में दस इन्द्रियाँ होती हैं और वे सब एक ही देह में होती हैं और वे इन्दियाँ जिन विषयों का सेवन करती हैं, वे भी अन्त में एक ही जगह पहुँचते हैं। तो भी क्या कोई उत्तम रसोई बना करके कर्णेन्द्रियों में डालता है? अथवा यदि पुष्प का सम्बन्ध आँखों से करा दिये जायँ तो काम चल सकता है? नहीं। रसोई का सेवन मुख से ही करना होगा और सुगन्ध का अनुभव नाक से। इसी प्रकार मेरा भजन मेरे स्वरूप को समझकर ही करना चाहिये। यदि मेरे वास्तविक स्वरूप को बिना समझे ही मेरा भजन किया जायगा, वह व्यर्थ किये हुए कार्य की ही भाँति निष्फल होगा। अतः कर्म के लिये ज्ञानरूपी दृष्टि की आवश्यकता होती है और उस दृष्टि का निर्दोष तथा निर्मल होना भी परमावश्यक है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (344-350)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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