श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
इसके अलावा और भी बहुत-से सम्प्रदाय हैं, पर उनके अनुगामी मेरा सर्वव्यापक रूप नहीं जानते। वे अग्नि, इन्द्र, सूर्य और सोम के प्रीत्यर्थ यजन करते हैं। वे यजन भी मुझे ही मिलते हैं, कारण कि यह समस्त विश्व मैं ही हूँ। परन्तु यह मेरे भजन का सुगम मार्ग नहीं है, बल्कि, टेढ़ा-मेढ़ा है। देखो, वृक्ष की शाखाएँ और पल्लवादि सब एक ही बीज से उत्पन्न होते हैं, पर सबके लिये जल ग्रहण करने की क्रिया जड़ ही करती है, इसलिये जड़ में ही जल डालना उचित होता है अथवा व्यक्ति के देह में दस इन्द्रियाँ होती हैं और वे सब एक ही देह में होती हैं और वे इन्दियाँ जिन विषयों का सेवन करती हैं, वे भी अन्त में एक ही जगह पहुँचते हैं। तो भी क्या कोई उत्तम रसोई बना करके कर्णेन्द्रियों में डालता है? अथवा यदि पुष्प का सम्बन्ध आँखों से करा दिये जायँ तो काम चल सकता है? नहीं। रसोई का सेवन मुख से ही करना होगा और सुगन्ध का अनुभव नाक से। इसी प्रकार मेरा भजन मेरे स्वरूप को समझकर ही करना चाहिये। यदि मेरे वास्तविक स्वरूप को बिना समझे ही मेरा भजन किया जायगा, वह व्यर्थ किये हुए कार्य की ही भाँति निष्फल होगा। अतः कर्म के लिये ज्ञानरूपी दृष्टि की आवश्यकता होती है और उस दृष्टि का निर्दोष तथा निर्मल होना भी परमावश्यक है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (344-350)
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