श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
परन्तु जिस समय उनके पुण्य की पूँजी समाप्त हो जाती है और साथ ही इन्द्रपद का तेज भी उतर जाता है, उस समय वे लोग फिर इसी मृत्युलोक में वापस चले आते हैं। जैसे कोई विषयासक्त व्यक्ति वेश्या के चक्कर में पड़कर अपना सर्वस्व लुटाकर दरिद्र हो जाता है और तब उस अवस्था में उसके लिये उस वेश्या के देहली (द्वार) पर पैर रखना भी असम्भव हो जाता है, वैसे ही एकत्रित पुण्य समाप्त हो जाने पर उन यज्ञ करने वालों की जो लज्जास्पद अवस्था होती है, उसका मैं क्या वर्णन करूँ! इस प्रकार जो मेरी शाश्वत आत्मा को न पहचान कर अपने पुण्य के प्रताप से स्वर्ग के सुख को प्राप्त करते हैं, उन्हें यथार्थ अमरत्व नहीं प्राप्त होता और अन्त में उन्हें इस मृत्युलोक में ही लौटना पड़ता है। वे माता के गर्भाशय में, गन्दगी में नौ महीने तक रहकर बार-बार जन्म लेते और मरते हैं। स्वप्न में धन-दौलत का खजाना देखा तो जाता है, पर नींद खुलते ही सारा खजाना न जाने कहाँ लुप्त हो जाता है, ठीक इसी तरह वेद के जानने वालों को प्राप्त होने वाला स्वर्गसुख भी मिथ्या ही समझना चाहिये। हे अर्जुन! अन्न निकाल लेने पर जो भूसा अवशिष्ट रहता है, उसे ओसाना बिल्कुल व्यर्थ ही होता है। इसी प्रकार चाहे कोई व्यक्ति वेदज्ञ भले ही हो जाय, पर यदि उसे मेरे नित्य स्वरूप का ज्ञान न हो तो समझ लेना चाहिये कि उसका सम्पूर्ण जीवन बेकार ही गया। इसीलिये यदि मेरे शाश्वत स्वरूप का ज्ञान न हो तो सारे वेदोक्त धर्म निष्फल ही होते हैं। पर यदि तुम्हें मेरे स्वरूप का ज्ञान हो जाय और तब तुम्हें अन्य किसी भी चीज का ज्ञान न हो तो भी तुम सुखी ही होगे।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (328-334)
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