श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
इस प्रकार के भक्त प्रायश्चित्त का व्यापार तो बन्द कर देते हैं और कीर्तन करते हुए भक्ति के आवेश में नृत्य करने लगते हैं। उनका प्रायश्चित्त का व्यापार इसलिये बन्द हो जाता है कि उनमें पाप लेशमात्र भी नहीं होता। ये यम और दम इत्यादि को तेजहीन कर देते हैं, तीर्थों के नामो-निशान तक मिटा देते हैं और यमलोक के सम्पूर्ण क्रिया-कलाप को बन्द कर देते हैं; क्योंकि यम कहता है कि इन लोगों ने तो पहले से ही इन्द्रियों को अधीन कर रखा है तो फिर मैं अब किसका नियमन करूँ? इसी प्रकार इन लोगों के मनोनिग्रह को देखकर दम कहता है कि मैं अब किसका दमन करूँ? तीर्थ कहते हैं कि इनके शरीर के अवयवों में इतना भी दोष नहीं है, जो औषध भर को भी मिल सके। फिर हम अपने पावन गुण से इनका कौन-सा मल दूर करें। इस प्रकार वे लोग सिर्फ मेरे नाम के घोष से ही जगत् के दुःखों का अन्त करके पूरे संसार को महासुख (आत्मसुख) से लबालब भर देते हैं। वे बिना प्रभात के ही ज्ञानरूपी दिन का उदय करा देते हैं, बिना अमृत के ही अमर कर देते हैं और बिना योग के ही आँखों को कैवल्य का दर्शन करा देते हैं; परन्तु वे यह भेद नहीं करते कि यह राजा है और यह रंक है, वे यह नहीं विचारते कि यह छोटा है और यह बड़ा है; वे तो सम्पूर्ण जगत् के लिये आनन्द का बाड़ा समान रूप से खुला रखते हैं। वैकुण्ठ में तो शायद ही कभी कोई जाता हो, पर वे सारे संसार को ही वैकुण्ठ बना डालते हैं। इस प्रकार वे एकमात्र नाम-कीर्तन के घोष से सारे विश्व को प्रकाशमय बना देते हैं। वे सूय के सदृश तेजस्वी होते हैं, पर सूर्य को जो अस्त होने का दोष लगता है, वह दोष उन्हें कभी छू भी नहीं सकता। चन्द्रमा तो सिर्फ पूर्णिमा को ही पूर्ण मण्डलाकार दृष्टिगोचर होता है, पर वे सदा पूर्ण ही रहते हैं। निःसन्देह मेघ उदार होते हैं, पर उनकी पूँजी भी कभी-न-कभी ख़ाली हो जाती है और इसलिये वे भी उन महात्माओं की बराबरी नहीं कर सकते। इन्हें सचमुच उड़ते हुए सिंह कहना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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