ज्ञानेश्वरी पृ. 265

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग

एक बार मेरा जो नाम मुख पर लाने के लिये सहस्रों जन्म लेने पड़ते हैं, वह नाम उनकी जिह्वा पर प्रेम के कारण सदा थिरकता रहता है। मैं ऐसा हूँ कि वैकुण्ठ में भी नहीं रहता, मैं भानुमण्डल में भी नहीं रहता और यहाँ तक कि मैं योगियों के मन को भी पार करके निकल जाता हूँ। यदि मैं कहीं न मिलूँ तो भी, हे पाण्डव! जिस जगह पर मेरे भक्त प्रेम से मेरे नाम का घोष करते रहते हैं, उस जगह पर मैं सहज में मिल जाता हूँ। जरा देखो कि वे लोग मेरे गुणों में किस हद तक और कैसे लीन हो जाते हैं। उन्हें देश-काल का भी स्मरण नहीं रह जाता और वे मेरे नाम-संकीर्तन में आत्मसुख प्राप्त करते हैं। उनकी कृष्ण, विष्णु, हरि और गोविन्द की अखण्ड-माला निरन्तर चलती रहती है और वे मेरे विषय में मुक्त अन्तःकरण से अध्यात्म की चर्चा करके जी भरकर मेरा गुणगान करते रहते हैं। पर अब इनका अधिक विस्तार क्यों किया जाय! हे पाण्डु कुँवर! वे भक्त इस प्रकार मेरा गुणानुवाद करते हुए चराचर में विचरण करते रहते हैं। वे बड़े यत्न से पंच-प्राणों और मन को अच्छी तरह से दबाकर अपने वश में रखते हैं। वे भक्त बाहर से तो यम और नियम के बाड़ लगा देते हैं और भीतर वज्रासनरूपी किला बनाकर प्राणायामरूपी तोपों से मोर्चेबन्दी करते हैं। उस समय कुण्डलिनी शक्ति के जाग्रति के कारण जो प्रकाश होता है, उसमें मन और प्राणवायु की अनुकूलता से चन्द्रामृत (सत्रहवीं कला) अर्थात् परिपूर्ण आत्मज्ञानरूपी अमृत के सरोवर खुल जाते हैं। उस समय इन्द्रियाँ एकाग्रता की परम सीमा पर पहुँच जाती हैं, विकारों की भाषा का अवसान हो जाता है और समस्त इन्द्रियाँ खिंचकर हृदय-प्रदेश में बन्द हो जाती हैं। इतने में धारणारूपी घुड़सवार दौड़-धूप करके पंचमहाभूतों को इकट्ठा करते हैं और वे पंचमहाभूत एक जगह इकट्ठा होकर आकाश में लीन हो जाते हैं तथा संकल्प-विकल्प की चतुरंगिणी सेना (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) का पूर्णरूप से नाश करते हैं। फिर ‘विजय हो गयी’, ‘विजय हो गयी’, यह प्रचण्ड जयघोष होने लगता है और उस जयघोष में ध्यान-धारणा का डंका बजने लगता है तथा ब्रह्म के साथ ऐक्य का एक छत्र साम्राज्य दृष्टिगोचर होने लगता है। तत्पश्चात् सम्पूर्ण आत्मानुभवरूपी साम्राज्य में समाधिरूपी लक्ष्मी का अभिषेक होता है। हे अर्जुन! इस प्रकार मेरा भजन अत्यन्त ही गंभीर और गूढ़ रहस्य से भरा हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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