श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
गगन का जितना विस्तार है, उतना ही विस्तार पवन का भी है और पंखा इत्यादि झलने से ही पवन का पृथक् रूप से भास होता है और नहीं तो पवन सदा गगन के साथ एकाकार ही रहता है। इसी प्रकार यदि कल्पना की जाय तो भूतमात्र का मुझमे ही भास होता है और नहीं तो निर्विकल्प-अवस्था में ये भूतमात्र नहीं रह जाते और केवल मैं ही अपने अविकृत रूप में बच रहता हूँ इसीलिये ‘नहीं’ और ‘हाँ’ ये दोनों केवल कल्पना की ही बातें हैं। जिस समय कल्पना का नाश हो जाता है, उस समय नाम-रूप वाला विश्व का भी अवसान हो जाता है और जिस समय कल्पना उत्पन्न होती है, उस समय यह सब कुछ रहता ही है। कल्पना का अवसान हो जाने पर ‘हाँ’ और ‘नहीं’ वाली बातों के लिये कहीं कोई आधार ही नहीं रह जाता। इसलिये यह ऐश्वर्य योग तुम फिर से ठीक तरह समझ लो। सर्वप्रथम तुम इस ज्ञानरूपी समुद्र में तरंगाकार बनो। फिर जब तुम देखोगे, तब तुम्हें इस बात का भान होगा कि स्वयं तुम्हीं यह सब चराचर जगत् हो।” श्रीदेव कहते हैं-“हे पार्थ! तुम्हें इस ज्ञान का प्रकाश प्राप्त हुआ अथवा नहीं? तुम्हारा द्वैतरूपी स्वप्न का अन्त हो गया अथवा नहीं? अब यदि फिर किसी समय बुद्धि को कल्पना की नींद आ जाय, तो फिर यह अभेद-ज्ञान मिट जायगा, क्योंकि उस समय तुम फिर स्वप्न वाली अवस्था में ही पहुँच जाओगे। इसलिये अब मैं तुम्हें वह रहस्य-ज्ञान साफ-साफ बतलाता हूँ, जिससे इस अविद्यारूपी निद्रा का कहीं नामो-निशान भी न रह जायगा और तुम्हारी आत्मज्ञान वाली जाग्रति सतत बनी रहेगी। इसलिये हे धनुर्धर धनंजय! तुम धैर्यपूर्वक मेरी बातों की ओर ध्यान दो। तुम यह बात अच्छी तरह समझ लो कि माया (प्रकृति) ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और संहार करती है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (89-97)
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