ज्ञानेश्वरी पृ. 253

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥7॥

जिसे लोग प्रकृति के नाम से पुकारते हैं, उसके दो प्रकार मैं तुम्हें पहले ही बतला चुका हूँ। उनमें पहला प्रकार अपरा प्रकृति की है, जो आठ भिन्न-भिन्न स्वरूपों में व्यक्त होती है और दूसरा प्रकार परा प्रकृति का है जो जीवरूप में व्यक्त होती है। इस प्रकृति विषयक कुछ बातें मैं तुमको पहले ही बतला चुका हूँ। इसलिये बार-बार उसका वर्णन करने से कोई लाभ नहीं है। महाप्रलय के समय इस मेरी प्रकृति में ही निराकार अभेद से समस्त भूम एकरूप से विलीन होते हैं। ग्रीष्म-ऋतु में जब भीषण तपन हेाती है, तब बीजसहित घास जमीन में ही समग्ररूप से विलीन हो जाती है अथवा वर्षा-ऋतु में दृष्टिगोचर होने वाले मेघों का उस समय आकाश में ही लय हो जाता है। जिस समय शरद्-ऋतु की निम्रल शान्ति का गुप्त भण्डार खुलता है, आकाश में बहने वाली वायु का अन्ततः उसी आकाश में विलय हो जाता है और जल की तरंगें जल में ही लुप्त हो जाती हैं। स्वप्न में देखे गये दृश्य जागने पर मन-ही-मन में समा जाते हैं। ठीक इसी प्रकार प्रकृति से उत्पन्न होने वाले समस्त जगत् कल्प के अन्त में प्रकृति में ही घुल-मिल जाते हैं। फिर नये कल्प के आरम्भ में जो लोग यह कहा करते हैं कि मैं ही फिर से जगत् को उत्पन्न करता हूँ, सो अब मैं उसके सम्बन्ध में स्पष्ट विवेचन करता हूँ। तुम मनोयोगपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (98-105)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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