श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
जिसे लोग प्रकृति के नाम से पुकारते हैं, उसके दो प्रकार मैं तुम्हें पहले ही बतला चुका हूँ। उनमें पहला प्रकार अपरा प्रकृति की है, जो आठ भिन्न-भिन्न स्वरूपों में व्यक्त होती है और दूसरा प्रकार परा प्रकृति का है जो जीवरूप में व्यक्त होती है। इस प्रकृति विषयक कुछ बातें मैं तुमको पहले ही बतला चुका हूँ। इसलिये बार-बार उसका वर्णन करने से कोई लाभ नहीं है। महाप्रलय के समय इस मेरी प्रकृति में ही निराकार अभेद से समस्त भूम एकरूप से विलीन होते हैं। ग्रीष्म-ऋतु में जब भीषण तपन हेाती है, तब बीजसहित घास जमीन में ही समग्ररूप से विलीन हो जाती है अथवा वर्षा-ऋतु में दृष्टिगोचर होने वाले मेघों का उस समय आकाश में ही लय हो जाता है। जिस समय शरद्-ऋतु की निम्रल शान्ति का गुप्त भण्डार खुलता है, आकाश में बहने वाली वायु का अन्ततः उसी आकाश में विलय हो जाता है और जल की तरंगें जल में ही लुप्त हो जाती हैं। स्वप्न में देखे गये दृश्य जागने पर मन-ही-मन में समा जाते हैं। ठीक इसी प्रकार प्रकृति से उत्पन्न होने वाले समस्त जगत् कल्प के अन्त में प्रकृति में ही घुल-मिल जाते हैं। फिर नये कल्प के आरम्भ में जो लोग यह कहा करते हैं कि मैं ही फिर से जगत् को उत्पन्न करता हूँ, सो अब मैं उसके सम्बन्ध में स्पष्ट विवेचन करता हूँ। तुम मनोयोगपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (98-105)
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