श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
इसी प्रकार जो मेरे शुद्ध स्वरूप पर जीवों की सृष्टि का आरोप करता है, वास्तव में वह जीव-सृष्टि स्वयं उसी के संकल्प या विचारों में ही होता है। पर जिस समय उस कल्पना करने वाली प्रकृति (माया) का अवसान हो जाता है, उस समय भूताभास मूलतः मिथ्या होने के कारण मेरा केवल अखण्ड शुद्ध स्वरूप ही बचा रह जाता है। जिस समय हमें चक्कर आता है, उस समय अगल-बगल की चट्टानें और गिरि-कन्दराएँ आदि घूमती हुई दिखायी पड़ती हैं। ठीक इसी प्रकार अपनी ही कल्पना के कारण अविकृत, शुद्ध, बुद्ध परब्रह्म में भी भूतमात्र का आभास होता है; परन्तु यदि वही कल्पना हटा दी जाय, तब साफ-साफ मालूम पड़ता है कि यह बात स्वप्न में भी सच मानने लायक नहीं है कि मैं जीवमात्र हूँ और जीवमात्र मुझमें हैं। इसीलिये प्रायः लोग यह कहा करते हैं कि केवल मैं ही इन जीवमात्र को धारण करता हूँ अथवा ये जीवमात्र मेरे में रहते हैं। सो ये सब संकल्परूपी वात के प्रकोप के कारण उत्पन्न होने वाली भ्रमिष्ट स्थिति में मुँह से निकलने वाली बड़बड़ाहट है। इसीलिये हे प्रियोत्तम! तुम यह बात अच्छी तरह से जान लो कि मुझे विश्व की आत्मा मानना मिथ्या भूतमात्र की मिथ्या कल्पना है। जैसे सूर्य की रश्मियों के कारण कुछ न रहने पर भी मृगजल भासमान होता है, वैसे ही भूतमात्र भी मुझमें भासमान होते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं‚ बल्कि वे मुझे भी अपने में भासमान कराते हैं। इस प्रकार मैं भूतभावन हूँ, पर जैसे प्रभा और सूर्य दोनों एक ही हैं, वैसे ही मैं भी भूतमात्र के साथ एक रूप ही हूँ। तत्त्वतः इसे ऐश्वर्ययोग कहते हैं। अब तुम यह बात अच्छी तरह से समझ गये न? अब भला तुम्हीं बतलाओ कि क्या इसमें भेद-भाव के लिये कहीं रत्तीभर भी जगह है? इसीलिये यह सिद्धान्त ठीक है कि जीवमात्र मुझसे भिन्न नहीं हैं और तुम मुझे जीवों से कभी भिन्न मत समझो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (71-88)
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