श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
इस प्रकार शुक्ल (अर्चिरादि मार्ग) और कृष्ण (धूम्र मार्ग) ये दोनों मार्ग अनादि काल से चले आ रहे हैं, इनमें से प्रथम मार्ग सीधा और दूसरा तिरछा (टेढ़ा) है, इसीलिये मैंने बुद्धि-बल से ही उसका विस्तृत वर्णन करके तुम्हें बतलाया है। इसमें हेतु यही है कि तुम अच्छे और बुरे मार्ग को देख लो, सत्य और असत्य की पहचान कर लो, हित तथा अहित जान लो और तब अपने कल्याण का साधन करो। देखो, यदि किसी व्यक्ति को अच्छी-खासी नौका दिखायी पड़ती हो, तो क्या फिर वह किसी अथाह जलाशय में कूदेगा? अथवा यदि किसी को कोई सुविधाजनक चलताऊ और उत्तम मार्ग मालूम हो, तो क्या वह किसी जंगल के रास्ते चलेगा? जो अमृत और विष के अन्तर को पहचानता हो, वह क्या कभी अमृत को छोड़ देगा? इसी प्रकार जिसे सुगम मार्ग दृष्टिगोचर होता हो, वह कभी टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर नहीं जायगा। इसी प्रकार सामने आये हुए भले-बुरे की तथा सच्चे और झूठे की परख अच्छी तरह से कर लेनी चाहिये; जो व्यक्ति इसकी परख कर लेता है, उसके सामने यदि कोई आपदा आकर खड़ी भी हो जाय तो भी उसकी कुछ हानि नहीं होती, अन्यथा देहावसान के समय बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता है और इन दोनों मार्गों के विषय में भ्रान्ति होने के कारण बड़ी खराबी होती है और आजन्म जिस योग का अभ्यास किया जाता है, वह एकदम बेकार ही हो जाता है। यदि अन्तकाल में जीव अर्चिरादि मार्ग से भटककर धूम्रमार्ग में लग जाय तो फिर उसे संसार के बन्धन में बँधना पड़ता है और जीवन-मृत्यु के चक्र में पड़कर भटकना पड़ता है। मुझे इन दोनों मार्गों को इसलिये स्पष्ट करके दिखलाने की आवश्यकता पड़ी है कि तुम्हारे ध्यान में इस अवस्था के महाकष्ट आ जायँ और तुम यह अच्छी तरह से जान लो कि इन सब कष्टों का किस तरह अन्त किया जा सकता है। इन दोनों योगमार्गों में से एक के द्वारा जीव ब्रह्मस्वरूप का महत्त्व प्राप्त करता है और दूसरे के द्वारा वह जीवन-मृत्यु के झंझटों में उलझता है। परन्तु अन्त समय में जिसको इन दोनों मार्गों में से जो मार्ग दैवयोग से मिल जाय, वही उसका मार्ग है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (238-246)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |