श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
यहाँ ऐसी शंका खड़ी हो सकती है कि देहावसान के समय अपनी इच्छानुसार समस्त बातें तो हो ही नहीं सकतीं। जो कुछ हमें मिलना होता है, वही एकाएक दैवयोग से मिल जाता है। ऐसी दशा में यह कैसे सम्भव है कि हम इन दोनों मार्गों में से ही किसी एक मार्ग से चलकर ब्रह्मस्वरूप हो सकें? इस शंका का समाधान यह है कि व्यक्ति को सदा यही सोचना और समझना चाहिये कि चाहे देह रहे अथवा न रहे, पर हम ब्रह्मस्वरूप ही हैं; क्योंकि रस्सी में जो सर्प का आभास होता है, उसका मूल कारण भी रस्सी ही होती है। क्या कभी जल को इस बात की प्रतीति होती है कि हममें तरंगता है अथवा नही? उस जल में चाहे तरंग रहे अथवा न रहे, पर वह हर समय जल ही रहता है। तरंग के उत्पन्न होने के साथ न तो वह उत्पन्न ही होता है और न तो तरंग के नष्ट होने के साथ वह नष्ट ही होता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति शरीर के रहते हुए भी ब्रह्मस्वरूप ही होते हैं, उन्हीं को ‘विदेही’ कहना चाहिये। अब यदि ऐसे विदेही व्यक्ति में शरीर का नाम और ठिकाना ही न बच रहा हो, तब क्या उनका किसी काल में मरना सम्भव है? अभिप्राय यह है कि इस प्रकार के लोग सचमुच में कभी मरते ही नहीं। फिर उन्हें मार्ग तलाशने की क्या जरूरत है और उनके लिये कहाँ-से-कहाँ और कब जाना हो सकता है? कारण कि उनके लिये तो समस्त देश-काल आत्मरूप ही हुए रहते हैं। और फिर देखो कि जिस समय घट फूट जाता है, उस समय घट में स्थित आकाश सरल मार्ग से जाय, तो भी वह आकाश में ही विलीन होता है। उस घड़े का आकाश चाहे जिस मार्ग से जाय, पर क्या कभी यह सम्भव है कि आकाश-तत्त्व में न मिले? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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