ज्ञानेश्वरी पृ. 206

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥22॥

वह ऐसी श्रद्धा से युक्त होकर अपने इष्ट देव की कार्य-सिद्धिपर्यन्त विधिपूर्वक आराधना करता रहता है। इस प्रकार के भक्त अपने अन्तःकरण में जिस फल की इच्छा करते हैं, वह फल उन्हें प्राप्त हो जाता है, परन्तु वह फल भी मुझसे ही उत्पन्न हुआ रहता है।[1]


अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥23॥

पर ये जो भक्त अपनी संकीर्ण सोचों और कल्पनाओं के बाहर कभी नहीं जाते, उन्हें मेरा कुछ भी ज्ञान नहीं होता और इसीलिये उन्हें नाशवान् फल ही प्राप्त होते हैं। किंबहुना, ऐसी भक्ति से एकमात्र सांसारिक साधन ही मिलते हैं, क्योंकि आत्मानुभव के बिना ये समस्त फल-भोग क्षणभर दिखायी पड़ने वाले स्वप्न के समान ही होते हैं। यदि हम इस विचार का क्षणभर के लिये परित्याग कर भी दें तो भी एक और बात यह है कि वे जिस देवी-देवता का प्रेमपूर्वक भजन-पूजन करते हैं, उसी देवी-देवता का स्वरूप वे प्राप्त करते हैं। किन्तु जो भक्त तन, मन और प्राण से मेरा ही अनुसरण करते हैं, वे देह का अन्त होते ही मद्रूप हो जाते हैं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (145-146)
  2. (147-150)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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