श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
वह ऐसी श्रद्धा से युक्त होकर अपने इष्ट देव की कार्य-सिद्धिपर्यन्त विधिपूर्वक आराधना करता रहता है। इस प्रकार के भक्त अपने अन्तःकरण में जिस फल की इच्छा करते हैं, वह फल उन्हें प्राप्त हो जाता है, परन्तु वह फल भी मुझसे ही उत्पन्न हुआ रहता है।[1]
पर ये जो भक्त अपनी संकीर्ण सोचों और कल्पनाओं के बाहर कभी नहीं जाते, उन्हें मेरा कुछ भी ज्ञान नहीं होता और इसीलिये उन्हें नाशवान् फल ही प्राप्त होते हैं। किंबहुना, ऐसी भक्ति से एकमात्र सांसारिक साधन ही मिलते हैं, क्योंकि आत्मानुभव के बिना ये समस्त फल-भोग क्षणभर दिखायी पड़ने वाले स्वप्न के समान ही होते हैं। यदि हम इस विचार का क्षणभर के लिये परित्याग कर भी दें तो भी एक और बात यह है कि वे जिस देवी-देवता का प्रेमपूर्वक भजन-पूजन करते हैं, उसी देवी-देवता का स्वरूप वे प्राप्त करते हैं। किन्तु जो भक्त तन, मन और प्राण से मेरा ही अनुसरण करते हैं, वे देह का अन्त होते ही मद्रूप हो जाते हैं।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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