ज्ञानेश्वरी पृ. 207

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय: ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥24॥

परन्तु साधारण प्राणी ऐसा नहीं करते और निरर्थक ही अपने हित की हानि करते हैं, क्योंकि वे चुल्लूभर पानी में तैरने की चेष्टा करते हैं। किन्तु जो सचमुच में तैरना चाहते हों, उन्हें गहरे जल में पैठना चाहिये। जिस समय अमृत के सागर में डुबकी लगाया जाय, उस समय अपना मुँह ही क्यों बन्द कर लिया जाय और अपने मन में किसी डाबर (गड्ढा) के जल का स्मरण रखकर क्यों दुःख किया जाय? अमृत में पैठ करके भी बलात् अपने ऊपर मृत्यु क्यों ली जाय? इसकी अपेक्षा स्वयं अमृत बनकर अमृत में ही क्यों न रहा जाय?

इसी प्रकार हे धनुर्धर! यह फल हेतु वाला पिंजरा त्यागकर और अनुभवरूपी पंख लगाकर ज्ञानाकाश में (चिदाकाश में) अच्छी तरह क्यों न उड़ा जाय और उसके स्वामी बनकर क्यों न रहा जाय? जिस समय व्यक्ति ऐसी ऊँचाई पर उड़ान भरने लगता है, उस समय उसके शौर्य से सुख का इतना ज्यादा विस्तार होता है कि व्यक्ति अपने आनन्द के आवेश में जितने वेग से चाहे उतने वेग से उड़ सकता है। जिसका माप न किया जा सके, उस आत्मसुख को मापने की चेष्टा क्यों किया जाय? मैं तो अव्यक्त और निराकार हूँ; फिर मुझे कोई व्यक्त तथा साकार क्यों माने? मेरा स्वरूप तो प्राणियों में ही स्वतःसिद्ध है, फिर उसे पाने के लिये निरर्थक साधनों के चक्कर में पड़ने की क्या जरूरत है? पर हे पाण्डव! विचार करने से यह मालूम होता है कि यदि इस प्रकार के प्रश्न किये जायँ, तो वे जीवों को कुछ अच्छे नहीं लगते।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (151-157)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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