ज्ञानेश्वरी पृ. 205

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता: ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया ॥20॥

फल की कामना रखने के कारण उनके हृदय में काम का प्रवेश हो जाता है और उसी काम के संसर्ग से ज्ञानरूपी दीपक बुझ जाता है। इससे वे बाह्याभ्यन्तर अज्ञानरूपी भयानक अन्धकार में जा गिरते हैं। यद्यपि मैं उनके निकट ही रहता हूँ, पर फिर भी वे मुझे नहीं देख पाते और तब वे तन-मन से अन्यान्य देवों की आराधना में तत्पर हो जाते हैं। इस प्रकार के मनुष्य पहले से ही प्रकृति (माया) के दास बने हुए रहते हैं; तिस पर से विषय-भोग के चक्कर में उलझ-कर वे और भी अधिक दीन-हीन हो जाते हैं और तब वे लोलुपता के कारण अन्य देवताओं की भक्ति बड़े कौतुक के साथ करते हैं। वे स्वयं अपनी ही बुद्धि से स्वयं के लिये न जाने कितने-कितने नियम बना लेते हैं, न जाने कितनी पूजा-सामग्री एकत्रित कर लेते हैं और न जाने विधिपूर्वक कितनी विहित वस्तुएँ देवताओं को अर्पण करते हैं।[1]


यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धा तामेव विदधाम्यहम् ॥21॥

फिर भी भक्त अपनी इच्छानुसार जिस देवता का भजन-पूजन करना चाहे, उस देवता का भजन-पूजन करे, पर उस भक्त के उस भजन-पूजन का फल मैं ही पूर्ण करता हूँ। समस्त देवी-देवताओं में मैं ही निवास करता हूँ, इस प्रकार की निश्चयात्मक बुद्धि उसकी नहीं रहती। यही कारण है कि उसके अन्तःकरण में यह भेदभाव बना रहता है कि जितने देवी-देवता हैं, वे सब वास्तव में पृथक्-पृथक् ही हैं।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (139-142)
  2. (143-144)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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