ज्ञानेश्वरी पृ. 165

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग

जब यह शरीर में से पृथ्वी और जल दोनों महाभूतों को चबा डालती है, तब यह बिल्कुल संतृप्त हो जाती है और तब किंचित् शान्त होकर सुषुम्ना नामक नाड़ी के पास रहती है। वहाँ संतृप्त और सन्तुष्ट होकर वह जो विष उगलती है, वही प्राणवायु के लिये अमृत के सदृश हो जाता है और उस अमृत से प्राणवायु जीवन धारण करती है। यद्यपि वह प्राणवायु उस विष की अग्नि में से ही निकलती है, पर फिर भी वह शरीर के अन्दर और बाहर दोनों हिस्से को शीतल कर देती है और तब वह अंग-प्रत्यंग में फिर से वह शक्ति भरने लगती है जो वह पहले उनमें से निचोड़ चुकी होती है। किन्तु नाड़ियों के मार्ग भर चुके होते हैं और उनका वेग बन्द हो चुका रहता है और शरीर में रहनेवाली अपान, व्यान आदि नौ प्रकार की वायु समाप्त हो चुकी होती है और एकमात्र प्राणवायु ही शेष रहती है, इसलिये शरीर के समस्त धर्म विनष्ट हो जाते हैं।

तत्पश्चात् नासिका के दोनों रन्ध्रों की इडा और पिंगला नाम की नाड़ियाँ परस्पर मिलकर एक हो जाती हैं, उनकी तीनों गाँठें खुल जाती हैं और शरीर के भीतरी छहों चक्रों के ऊपर के आवरण फट जाते हैं। फिर नासारन्ध्रों से प्रवाहित होने वाली जिन वायुओं की समता चन्द्र और सूर्य से दी जाती है, उनका इस तरह से नाश हो जाता है कि वे दीपक लेकर ढूँढ़ने से भी नहीं मिलते। बुद्धि की चपलता चली जाती है, नाक में जो गन्ध शेष रहती है, वह भी कुण्डलिनी के साथ-साथ सुषम्ना नाड़ी में प्रवेश कर जाती है। इसी बीच में चन्द्रमा की सत्रहवीं कला के अमृत का वह सरोवर, जिसका निवास ऊपर की ओर है, धीमी गति से तिरछा होने लगता है और आकर कुण्डलिनी के मुख के साथ जुड़ जाता है। फिर इस कुण्डलिनी की नली में जो अमृतरस भरता है, वह अंग-प्रत्यंग में फैल जाता है और प्राणवायु के योग से सारे शरीर में व्याप्त होकर जहाँ-का-तहाँ सूख जाता है, जैसे साँचे को गरम करने से उसमें स्थित मोम निकल जाता है और फिर वह साँचा केवल धातु-रस से ही लबालब भरा रहता है, वैसे ही मानो चन्द्रकला इस शरीर के रूप में अवतरित होती हुई मालूम पड़ती है और उसके चतुर्दिक् केवल त्वचारूपी आवरण ही बचा रहता है। मेघों के आ जाने से सूर्य अदृश्य हो जाता है; पर उन मेघों के चले जाने पर जैसे वह फिर अपनी प्रकाशयुक्त प्रभा से प्रकट होता है, वैसे ही इसी चन्द्रकला के तेजस्वी स्वरूप पर केवल त्वचारूपी सूखा आवरण ही बचा रहता है और फिर वह भी भूसी की तरह उड़ जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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