ज्ञानेश्वरी पृ. 166

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग

तब शरीर के अवयवों की कान्ति ऐसी प्रतीत होती है कि मानो वह शुद्ध स्फटिक का दोषरहित स्वरूप ही हो अथवा रत्नरूपी बीज में अंकुर निकला हुआ हो अथवा ऐसा प्रतीत होने लगता है कि सन्ध्याकाल का रंग निचोड़कर यह शरीर बनाया गया है अथवा अन्तस्थ चैतन्य के तेजपुंज की निर्मल प्रभा है। यह शरीर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कुंकुम से भरा हुआ अथवा चैतन्य रस से ढाला गया है अथवा मैं समझता हूँ कि यह शरीर साक्षात् मूर्तिमयी शान्ति ही है। यह शरीर मानो आनन्दरूपी चित्र का रंग अथवा ब्रह्मसुख की प्रत्यक्ष मूर्ति है अथवा सन्तोषरूपी वृक्ष दृढ़ता से रोपा मालूम पड़ता है। यह शरीर कनक चम्पक की कली है अथवा अमृत का पुतला है अथवा कोमलता का ऐसा बागीचा है जो वसन्त-ऋतु से व्याप्त है अथवा शरद्-ऋतु की आर्द्रता से चन्द्रबिम्ब पल्लवित हुआ है अथवा यह कल्पना होती है कि स्वयं तेज ही मूर्तिमान् होकर आसन पर बैठा हुआ है। जब कुण्डलिनी चन्द्रकला के अमृत का पान करती है, तब शरीर की ऐसी दशा हो जाती है। उस समय यमराज (कृतान्त) भी इस शरीर से भय खाने लगता है, उस समय बुढ़ापा भी दूर-दूर तक नजर नहीं आता। युवावस्था की गाँठ खुल जाती है और लुप्त हुई बाल्यावस्था फिर से प्रकट होती है। यदि केवल अवस्था के विषय में सोचा जाय तब तो वह बालकों के ही सदृश दीखता है; पर उसकी शक्ति इतनी प्रबल होती है कि ‘बाल’ शब्द का अर्थ ‘बल’ ही करना पड़ता है। उस समय उसके शरीर में जो नये तेजयुक्त नख निकलते हैं, उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कनक-वृक्ष में ऐसी रत्नकलिका निकली है, जो कभी मुरझाने वाली न हो। उस समय उसके जो नये दाँत निकलते हैं, वे भी इतने छोटे होते हैं कि उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि मानो जबड़े में दोनों ओर हीरक-कणिका की पंक्ति बिछायी गयी हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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