श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
जिसके समक्ष उस अद्वैतरूपी दिन का उदय होता है, जिसका कभी अवसान ही नहीं होता, वह मनुष्य अनवरत अपने-आप में निमग्न रहता है। हे पार्थ! जो इस प्रकार की अद्वैत दृष्टि से सोचता है, वह अद्वितीय होता है; क्योंकि इस त्रिभुवन में वही अकेला (एकाकी) आत्मरूप से परिपूर्ण रहता है और इसीलिए वह सहज ही अपरिग्रही बना रहता है।” इस प्रकार प्राप्त पुरुषों के लोकोत्तर जो लक्षण हैं, श्रीकृष्ण अपनी सर्वज्ञता से कहते हैं। इतना ही नहीं, भगवान् ने सिद्धों के गौरव को अपने गौरव से भी अधिक बढ़ा दिया और फिर कहा-“जो योगी ज्ञानियों में श्रेष्ठ है तथा जो ज्ञानिजनों की दृष्टि का स्वयं प्रकाश ही होता है, जिस समर्थ की संकल्पना से ही इस चराचर विश्व की सृष्टि हो जाती है, ओंकाररूपी हाट में बुना हुआ शब्द ब्रह्मरूपी उत्कृष्ट वाङ्मय वस्त्र भी जिसकी कीर्ति को आच्छादित करने में असमर्थ होता है, जिसके शरीर के तेज से रवि और शशि तक के व्यापार चलते हैं और इसीलिये यह (उस रवि और शशि के प्रकाश में भ्रमण करने वाला) संसार जिसके तेज के न रहने पर कर्महीन हो जायगा, केवल इतना ही नहीं, अपितु हे अर्जुन! जिस योगी के नाममात्र का विचार करने पर उसकी महिमा के समक्ष यह सीमारहित आकाश भी अत्यल्प दृष्टिगोचर होता है, उसका एक-एक गुण तुम कहाँ तक जान सकोगे? इसलिये यह वर्णन बहुत हुआ, संतों के लक्षणों का वर्णन करने के निमित्त से भगवान् ने किसके लक्षण बताये और क्यों बताये, यह वर्णन करना कठिन है। हे अर्जुन! जो ब्रह्मविद्या द्वैत का नामोनिशान ही मिटा डालती है, वह ब्रह्मविद्या यदि मैं पूर्णतः प्रकट कर दूँ तो जो प्रेम का माधुर्य है, वही क्या नष्ट नहीं हो जायगा? इसीलिये यह सच्चे अद्वैत की बातें नहीं हैं, बल्कि इसमें एक पतले-से पर्दे की आड़ मैंने इसलिये कर दिया है कि तुम्हारे प्रेम का सुख भोगने के लिये मन थोड़ा-सा पृथक् होकर रहे। जो लोग ‘सोऽहम्’ की भावना में प़ड़कर मोक्ष-सुख पाने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं, उनकी नजर हम दोनों के प्रेम पर न लगे, बस इतना ही मैं चाहता हूँ।” उस समय श्रीकृष्ण ने सोचा कि यदि अद्वैत का व्याख्यान सुनकर इस अर्जुन का अहंभाव ही चला गया और यदि यह मेरे स्वरूप में मिलकर समरस ही हो गया तो फिर मैं अकेला रहकर ही क्या करूँगा? फिर मेरे लिये ऐसा कौन बचा रहेगा, जिससे मेरे चित्त को शान्ति मिलेगी अथवा जिससे मैं उन्मुक्त मन से बातचीत करूँगा अथवा जिसे प्रेमावेश में प्रगाढ़ आलिंगन कर सकूँगा? यदि पार्थ मेरे स्वरूप में मिलकर समरस हो जायगा तो फिर मन में न समाने वाली अपने हृदय की कोई अच्छी बात मैं किससे कहूँगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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