ज्ञानेश्वरी पृ. 155

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग

इन सब बातों को सोचकर श्रीकृष्ण कुछ परेशान-से हो गये और उन्होंने अद्वैत में ही द्वैत का उपदेश करने के व्याज से अपने प्रिय भक्त अर्जुन के मन को अपनी ओर खींच लिया। सम्भव है कि यह वर्णन श्रोताओं को कुछ बेढंगा जान पड़े, पर पार्थ तो वास्तव में श्रीकृष्ण के सुख की ढली हुई जीती-जागती मूर्ति ही था। परन्तु सुनने वालों को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि इतना ही नहीं, बल्कि जैसे कोई बन्ध्या स्त्री वृद्धावस्था में केवल एक ही पुत्र उत्पन्न होने पर पुत्र-प्रेम की पुतली बनकर मानो नृत्य करने लगती है, ठीक वैसी दशा उस समय श्रीकृष्ण की हो रही थी। यदि अर्जुन के प्रति श्रीकृष्ण के प्रेम की अधिकता न देखता तो शायद मैं भी इस प्रकार का वर्णन न किया होता, पर देखो, यह कैसी आश्चर्यजनक बात है! कैसा विचित्र उपदेश है! उधर युद्धभूमि में मार-काट मची हुई है ऐसे प्रसंग में मन को स्थिर करने का कोई मौका नहीं, सब तरह से यहाँ विक्षेप-ही-विक्षेप है, ऐसे प्रसंग में गीतारूपी आत्मज्ञान का उपदेश दे रहे हैं, क्योंकि निश्चतरूप से अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के प्रेम की मूर्ति है। जहाँ प्रेम हो, वहाँ लज्जा होती हो तो वह प्रेम कैसा? उसी प्रकार व्यसन तो है, लेकिन उससे थकावट होती है तो वो व्यसन कैसा? पागलपन तो है लेकिन वह यदि भ्रम में नहीं डालता तो वह कैसा पागलपन?

इसलिये कहने का तात्पर्य यही है कि अर्जुन सचमुच कृष्ण की मित्रता का (सख्यभक्ति का आश्रय) आधारस्थल अथवा सुख-श्रृंगार किये हुए भगवान् के मन का दर्पण ही था। इस प्रकार अर्जुन का पुण्य अत्यन्त महान् और पावन था, यही कारण है कि वह भगवान् की कृपा से भक्तिरूपी बीज को धारण करने के लिये उपजाऊ भूमि की भाँति एक सुन्दर पात्र हो गया था अथवा नवधा भक्तियों में जो नवीं आत्मनिवेदन वाली भक्ति है उसके अत्यन्त निकट रहने वाली जो सख्य-नाम की भक्ति है, उस भक्ति का पार्थ को अधिष्ठाता देवता ही जानना चाहिये। अर्जुन पर श्रीकृष्ण का इतना अपार प्रेम था कि अत्यन्त निकट श्रीकृष्ण के स्थित रहने पर भी उनकी स्तुति न करके उनके सेवक अर्जुन का ही गुण-वर्णन करने को जी ललचाता है और फिर यह देखो कि जो पतिपरायणा पत्नी बड़ी ही निष्ठा से अपने पति की सेवा-शुश्रूषा करती है और पति जिसका सदैव सम्मान करता है, उस पतिपरायणा की उसके पति से भी बढ़कर प्रशंसा की जाती है अथवा नहीं? वैसे ही मेरे अन्तःकरण में भी अर्जुन की ही स्तुति करने की बात आयी, कारण कि तीनों लोकों के पुण्य का प्रताप एकमात्र उसी अर्जुन में ही था। इस अर्जुन के प्रेम के अधीन होकर उन श्रीकृष्ण परमात्मा को निराकार होने पर भी साकार रूप धारण करना पड़ा था और उन पूर्णकाम के चित्त में भी लालसा उत्पन्न हुई थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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