जब तुम निर्णय नहीं कर सकते तो फिर तुमने क्या उपाय सोचा?
हे महाराज! कायरता के दोष से मेरा क्षात्र स्वभाव दब गया है और धर्म का निर्णय करने में मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है, इसलिये जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो, वह बात मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ और आपके ही शरण हूँ। आप मुझे शिक्षा दीजिये।
परन्तु महाराज! आपने पहले जैसे युद्ध करने के लिये कह दिया था, वैसा फिर न कहें; क्योंकि युद्ध के परिणाम में मुझे यहाँ का धन-धान्य से सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय अथवा देवताओं का आधिपत्य मिल जाय तो भी मेरा यह इन्द्रियों को सुखानेवाला शोक दूर हो जाय-ऐसा मैं नहीं देखता।।7-8।।
फिर क्या हुआ संजय?
संजय बोले- हे राजन्। निद्राविजयी अर्जुन अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण से ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’- ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गये।।9।।
अर्जुन के चुप होने पर भगवान् ने क्या कहा?
अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण दोनों सेनाओं के मध्यभाग में विषाद करते हुए अर्जुन से मुस्कराते हुए कहने लगे- तू शोक न करने लायक का शोक करता है और पण्डिताई की सी बड़ी-बड़ी बातें बघारता है; परन्तु जो मर गये हैं, उनके लिये और जो जीते हैं, उनके लिये भी पण्डितलोग शोक नहीं करते।।10-11।।
शोक क्यों नहीं करते भगवन्?
मैं, तू और ये राजालोग पहले नहीं थे- यह बात भी नहीं है और हम सब आगे नहीं रहेंगे-यह बात भी नहीं है अर्थात् हम सब पहले भी थे और आगे भी रहेंगे- ऐसा जानकर पण्डितलोग शोक नहीं करते।।12।।
इस बात को कैसे समझा जाय?
अरे भैया! देहधारी के इस शरीर में जैसे कुमार, युवा और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही देहधारी को दूसरे शरीरों की प्राप्ति होती है। इस विषय में पण्डितलोग मोहित नहीं होते।।13।।
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