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इनका भी मूल कारण कौन है भगवन्?
मैं ही सम्पूर्ण संसार का मूल कारण हूँ; क्योंकि संसार मेरे से ही उत्पन्न होता है और मेरे में ही लीन होता है। हे धनन्जय! मेरे सिवाय इस संसार का दूसरा कोई किन्चिमात्र भी कारण नहीं है। जैसे सूत की बनायी हुई मणियाँ सूत के धागे में ही पिरोयी जायँ तो उस माला में सब सूत-ही-सूत है, ऐसे ही सम्पूर्ण संसार मैं-ही-मैं हूँ।।4-7।।
पर मैं इस बात को कैसे समझूँ भगवन्?
हे कुन्तीनन्दन! जल में रस मैं हूँ, सूर्य और चन्द्रमा में प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ, सम्पूर्ण वेदों में प्रणव (ओंकार) मैं हूँ, आकाश में शब्द मैं हूँ, मनुष्यों में पुरुषार्थ मैं हूँ, पृथ्वी में पवित्र गन्ध मैं हूँ, अग्नि में तेज मै हूँ, सम्पूर्ण प्राणियों में जीवनी-शक्ति मैं हूँ और तपस्वियों का तप मैं हूँ। हे पार्थ! सम्पूर्ण प्राणियों का अनादि बीज मुझे ही जान। बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वी पुरुषों का तेज (प्रभाव) मैं हूँ। हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! बलवानों में कामना और आसक्ति से रहित (सात्त्विक) बल मैं हूँ। मनुष्यों में धर्म से युक्त काम मैं हूँ और तो क्या कहूँ, जितने भी सात्त्विक, राजस और तामस भाव हैं, वे सब मेरे से ही होते हैं- ऐसा समझ; परन्तु मैं उनमें और वे मेरे में नहीं हैं अर्थात् मैं उनसे सर्वथा अतीत, निर्लिप्त हूँ।।8-12।।
यदि ऐसी बात है तो सब लोग आपको ऐसा क्यों नहीं जानते?
वे सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों से मोहित रहते हैं अर्थात् संसार में ही रचे-पचे रहते हैं। इसलिये वे इन तीनों गुणों से अतीत और अविनाशी मेरे को नहीं जानते।।13।।
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