दुःखों का नाश करने वाला यह योग कब सिद्ध होता है?
जब अच्छी तरह से वश में किया हुआ चित्त अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थों से विमुख हो जाता है अर्थात् अपने लिये किसी भी पदार्थ की किन्चिमात्र भी आवश्यकता नहीं समझता, तब वह योग कहलाता है अर्थात् उसका योग सिद्ध हो जाता है।।18।।
योगी के उस चित्त की क्या अवस्था होती है?
जैसे स्पन्दरहित वायु के स्थान पर रखे हुए दीपक की लौ थोड़ी-सी भी हिलती-डुलती नहीं, ऐसी अवस्था ध्यानयोग का अभ्यास करने वाले योगी के स्थिर चित्त की हो जाती है।।19।।
चित्त की ऐसी अवस्था होने पर क्या होता है?
योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त जब समाधि के सुख से भी उपराम हो जाता है, तब योगी अपने-आपमें अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है।।20।।
अपने-आप में सन्तुष्ट होनेपर क्या होता है?
योगी को सीमारहित, इन्द्रियों से अतीत और बुद्धि से ग्रहण करने योग्य सुख का अनुभव होता है। ऐसे वास्तविक सुख में स्थित होने पर वह ध्यानयोगी फिर कभी अपने स्वरूप से विचलित नहीं होता।।21।।
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