गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द7.आर्य क्षत्रिय -धर्म
वह शरीर और इन्द्रियों के जीवन के बाह्म तथ्यों के परे जाकर अपनी सत्ता के वास्तविक तथ्य को देखता है। वह अज्ञानमयी प्रकृति की भावावेगमयी और भौतिक कामनाओं से ऊपर उठकर मानव-जीवन के एक मात्र सच्चे ध्येय में पहुँच जाता है। वास्तविक तथ्य क्या है? वह परम ध्येय क्या है? यह कि जगत् इन महान् आवर्तनों के भीतर मुनष्य के जीवन–मरण का जो सतत प्रवाह चल रहा है वह एक दीर्घ-कालव्यापी प्रगति है जिसके द्वारा मानव-प्राणी अपने आपको अमृतत्त्व के लिये तैयार करता है। वह अपने-आपको कैसे तैयार करे? कौन-सा मनुष्य अधिकारी होता है? वह जो अपने-आपको प्राण और शरीर समझने वाली धारणा से ऊपर उठाता है, जो संसार के भोतिक और संवेदनात्मक प्रभाव को बहुत अधिक मूल्य नहीं देता अथवा उतना मूल्य नहीं देता जितना देहात्म-बुद्धि रखने वाला देता है, जो अपने-आपको और आत्मा जानता है, जो अपने शरीर मे नहीं, बल्कि आत्मा में रहने का अभ्यासी होता है और दूसरों के साथ, उन्हें केवल देह-स्वरूप जानकर नहीं, बल्कि आत्मा जानकर ही व्यवहार करता है। कारण अमृतत्त्व का अर्थ मृत्यु के बाद केवल जीना ही नहीं है-वह तो मन को लेकर जानते हुए प्रत्येक प्राणी को प्राप्त है-अमृतत्त्व का अर्थ है जीवन-मरण की अवस्था को पार कर जाना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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