गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 59

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

7.आर्य क्षत्रिय -धर्म


अर्जुन श्रीकृष्ण को उत्तर देते हुए फटकार को स्वीकार करता है, हालाकि अब भी वह उनके आदेश का पालन करने से हिचकचाता और इनकार करता है। वह अपनी दुर्बलता को जानता है, फिर भी उसके आधीन होकर रहना चाहता है। उसके हृदय की कृपणता ने उसके असली वीर स्वभाव को पराभूत कर दिया है; उसकी सारी चेतना धर्मसंमूढ हो गयी है और वह अपने सख भगवान् को अपने गुरुरूप से वरण करता है; परंतु उसने अपने धर्म-ज्ञान का समर्थन जिन भावावेगमय और बौद्धिक आधारों पर किया था, वे एकदम गिर गये हैं और वह गुरु के ऐसे आदेश को नहीं स्वीकार कर सकता जो उसकी नजर में उसके पुराने दृष्टिकोण के जैसा ही है और कर्म-संबधी कोई नया आधार नहीं देता। इसलिये अब भी वह उपस्थित कर्म न करने की बात का ही समर्थन करने की चेष्टा करता है और उसकी पुष्टि में अपनी स्नायवीय और सवेदनात्मक सत्ता के दावे को उपस्थित करता है जो इस हत्याकांड से और इसके रक्त से सने हुए भागों के परिणाम से कांपती है, अपने हृदय के दावे को उपस्थित करता है जो संहार-कर्म से इसलिये पीछे हटता है कि इससे जीवन खोखला और उदास हो जायेगा, अपने प्रचलित नैतिक विचारों के दावे को उपस्थित करता है जो इसलिये भयभीत हो गये हैं कि भीष्म और द्रोणाचार्य जैसे गुरुओं की हत्या करना आवश्यक होगा, अपनी तर्कबुद्धि के दावे को उपस्थित करता है जो उसको सौपे गये भीषण और प्रचंड कर्म में कोई भी भलाई नहीं देखती, बल्कि जिसमें उसे बुराई-ही-बुराई नजर आती है।

उसने यह निश्चय कर लिया है कि अब तक जिन विचारों और प्रेरक भावों के आधार पर वह लड़ सकता था उनके आधार पर तो वह अब नहीं लड़ेगा और इस निश्चय के साथ वह मौन होकर बैठ गया और अपनी आपत्तियों के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा, वह समझता था कि इन आपत्तियों का कोई उत्तर नहीं हो सकता। श्रीकृष्ण सबसे पहले अर्जुन की अहमात्मक सत्ता के इन दावों का निराकरण करते हैं जिससे उसके अंदर ऐसे उच्चतर धर्म के लिये स्थान ख़ाली हो जाये जो कर्म के समस्त अहमात्मक प्रेरक हेतुओं से परे है। श्रीगुरु का उत्तर दो विभिन्न धाराओं पर चलता है। पहला संक्षिप्त उत्तर आर्य-संस्कृति की उच्चतम भावनाओं के आधार पर है जिसमें अर्जुन पला है, दूसरा, सर्वथा भिन्न प्रकार का और अधिक व्यापक है, उसका आधार है वह अधिक अंतरंग ज्ञान जो हमारी सत्ता के गंभीरतर सत्यों में हमारा प्रवेश करता है, और वहीं से गीता की वास्तविक शिक्षा आरंभ होती है। पहला उत्तर वेदांत-दर्शन की दार्शनिक और नैतिक धारणा पर तथा कर्तव्य और स्वाभिमान-संबधी सामाजिक भावना पर अवलंबित था और ये ही थे आर्यों के समाज के नैतिक आधार।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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