गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 17.देव और असुर
ये देवों और दानवों या असुरों के मानवीय प्रतिनिधि हैं। यह भेद भारतीय धार्मिक प्रतीकवाद में अत्यंत प्राचीन है। ऋग्वेद का मूल विचार देवताओं और उनके अंधकारमय विरोधियों के बीच, ज्योति के अधिपतियों एवं अनंतता के पुत्रों और अंधकार एवं विभाजन की संतानों के बीच होने वाला संग्राम ही है, वह एक ऐसा संग्राम है जिसमें मनुष्य भाग लेता है और जो कुछ समस्त आंतर जीवन और कर्म में प्रतिबिंबित होता है। जरदुश्त के धर्म का भी मूलतत्त्व यही था। परवर्ती साहित्य में भी इसी विचार की प्रधानता पायी जाती है। रामायण, अपने मूल नैतिक भाव में, मानव-रूपधारी देव तथा मूर्तिमंत राक्षस के बीच, उच्च संस्कृति एवं धर्म के प्रतिनिधि तथा अतिरंजित अहं की विराट असंयत शक्ति एवं राक्षसी सभ्यता के बीच होने वाले घनघोर संघर्ष का रूपक है। महाभारत,-गीता जिसका एक अंश है,-मानवरूप देवों और असुरों के जीवनव्यापी संघर्ष को आपना विषय बनाती है; देव वे शक्तिशाली मनुष्य हैं, देवताओं के पुत्र हैं जो उच्च नैतिक धर्म के प्रकाश द्वारा परिचलित होते हैं और असुर वे मूर्तिमंत दानव हैं, वे शक्तिशाली मनुष्य हैं जो अपने बौद्धिक, प्राणिक एवं भौतिक अहं की सेवा में रत हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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