गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 17.देव और असुर
जिस कार्य पर सब कुछ निर्भर करता है, जो युद्ध अर्जुन को करना है, जिसमें देहधारी ईश्वर उसके सारथि हैं और जगत के प्रभु ने काल-पुरुष के रूप में प्रकट होकर जिसके लिये आदेश दिया है, वह धर्म के राज्य, सत्य, सदाचार और न्याय के साम्राज्य की स्थपना का संघर्ष है। वह स्वयं देवजाति में उत्पन्न हुआ है; उसने अपने अंदर सात्त्विक स्वभाव का विकास किया है, यहाँ तक कि अब वह उस अवस्था में पहुँच गया है, जहाँ वह उच्च रूपांतर के योग्य है तथा त्रैगुण्य से और इसलिये सात्त्विक प्रकृति से भी मुक्त लाभ करने में समर्थ है। देव और असुर का यह विभाग सारी-की-सारी मनुष्य जाति में व्याप्त नहीं है, यह न तो इसके सभी व्यक्तियों पर कठोर रूप से लागू हो सकता है ओर न ही मनुष्य जाति के नैतिक या आध्यात्मिक इतिहास की सब अवस्थाओं में अथवा वैयक्तिक विकास के सब पक्षों में तीव्र और सुनिश्चित रूप से पाया जाता है। तामसिक मनुष्य, जो संपूर्ण जाति का कितना ही बड़ा भाग है, गीता में वर्णित श्रेणियों में से किसी के भी अंदर नहीं आता, यद्यपि उसके अंदर अल्प मात्रा में दोनों ही तत्त्व हो सकते हैं यद्यपि अधिकांश में वह डरते-डरते निम्नतर गुणों की ही सेवा करता है। सामान्य मनुष्य साधारणतः एक मिश्रण होता है; परंतु कोई एक या दूसरी प्रवृत्ति अधिक सुनिश्चित होती है, वह उसे प्रधान रूप से राजस-तामसिक-राजसिक बनाती चली जाती है और ऐसा कहा जा सकता है कि वह उसे दैवी निर्मलता या दानवी विक्षुब्धता में से किसी एक परिणति के लिये तैयार कर रही होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज