गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
12.मार्ग और भक्त
यह उस भेद की याद दिलाता है जो आरंभ में आत्मा में और फिर मुझमें”, आत्मनि अथो मयि, आदि वाक्यांशों से किया गया है: अर्जुन उस भेद को त्वाम्, अक्षरम् अव्यक्तम् इन शब्दों के द्वारा पैने रूप में उपस्थित करता है। वह सार-रूप में कहता है कि आप सर्वभूतों के परम मूल और उद्गम हैं, सब वस्तुओं के भीतर विराजमान उपस्थित हैं, अपने रूपों के द्वारा विश्व में परिव्याप्त शक्ति हैं, एक ऐसे ‘व्यक्ति’ हैं जो अपनी विभूतियों में, प्राणियों में, तथा प्रति में अभिव्यक्ति हैं और अपने महान विश्व-योग के द्वारा जगत में तथा हमारे हृदयों में सर्वकर्म-महेश्वर के रूप में विराजमान है। इस रूप में मुझे अपनी सारी सत्ता तथा चेतना में, अपने विचारों, भावों और कार्यों में आपको जानना, पूजना तथा आपके साथ योगयुक्त सततयुक्त होना है। पर तब इन अक्षर का क्या करना होगा जो कभी व्यक्त नहीं होते, अभी कोई रूप नहीं धारण करते, कर्ममात्र से पीछे हटकर तथा उसे पृथक् होकर अवस्थित हैं, जगत के साथ अथवा इसकी किसी भी वस्तु के साथ किसी प्रकार का संबंध नहीं स्थापित करते, नित्यमेव शांत, एक, निर्गुण और अचल हैं? सभी प्रचलित विचारों के अनुसार यह नित्य आत्मा महत्तर तत्त्व है और अभिव्यक्तिगत परमेश्वर अवर रूप हैं ‘अव्यक्त’ ही नित्य आत्मा हैं, ‘व्यक्त’ नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 12.1
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