गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 383

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
12.मार्ग और भक्त


अभीतक सर्वथा स्पष्ट और सुनिश्चित रूप में नहीं बतलाया गया है। हम इसे सर्वत्र पहले से ही देखते आये हैं ताकि हम गीता के संदेश का संपूर्ण मर्म आरंभ से ही समझते चलें और इस महत्तर सत्य के प्रकाश में नयी दृष्टि से देखी और खोजी हुई उसी जमीन पर हमें फिर से न चलता पड़े, जैसा कि हमें अन्यथा करना ही पड़ता। अर्जुन को सबसे पहले यह आदेश दिया गया है कि वह अपने पृथक् व्यक्तित्व को एकमेव सनातन और अक्षर आत्मा की शांत निवैंयक्तिकता में निमज्ज्ति कर दे; यह एक ऐसी शिक्षा थी जो उसकी पहले की धारणाओं से भली-भाँति मेल खाती थी और जिससे उसके मन में कोई कठिनाई नहीं पैदा हुई। परंतु अब उसे इन महत्तम परात्पर एवं विशालतम विराट् परमेश्वर के विश्वरूप का साक्षात्कार कराया गया है और आदेश दिया गया है कि ज्ञान, कर्म और भक्ति के द्वारा उनके साथ एकत्व प्राप्त करने का यत्न करें। इसलिये एक संदेह को दूर करने के लिये जो कि अन्यथा पैदा हो सकता था, वह पूछता है कि दोनों में से अच्छा क्या है, ‘‘जो भक्त इस प्रकार सत योगरत रहकर तुझे खोजते हैं, और फिर जो अव्यक्त अक्षर को खोजते हैं, त्वाम्‌ इनमें से कौन अधिक महान् योगवित् हैं?”[1]

यह उस भेद की याद दिलाता है जो आरंभ में आत्मा में और फिर मुझमें”, आत्मनि अथो मयि, आदि वाक्यांशों से किया गया है: अर्जुन उस भेद को त्वाम्‌, अक्षरम्‌ अव्यक्तम्‌ इन शब्दों के द्वारा पैने रूप में उपस्थित करता है। वह सार-रूप में कहता है कि आप सर्वभूतों के परम मूल और उद्गम हैं, सब वस्तुओं के भीतर विराजमान उपस्थित हैं, अपने रूपों के द्वारा विश्व में परिव्याप्त शक्ति हैं, एक ऐसे ‘व्यक्ति’ हैं जो अपनी विभूतियों में, प्राणियों में, तथा प्रति में अभिव्यक्ति हैं और अपने महान विश्व-योग के द्वारा जगत में तथा हमारे हृदयों में सर्वकर्म-महेश्वर के रूप में विराजमान है। इस रूप में मुझे अपनी सारी सत्ता तथा चेतना में, अपने विचारों, भावों और कार्यों में आपको जानना, पूजना तथा आपके साथ योगयुक्त सततयुक्त होना है। पर तब इन अक्षर का क्या करना होगा जो कभी व्यक्त नहीं होते, अभी कोई रूप नहीं धारण करते, कर्ममात्र से पीछे हटकर तथा उसे पृथक् होकर अवस्थित हैं, जगत के साथ अथवा इसकी किसी भी वस्तु के साथ किसी प्रकार का संबंध नहीं स्थापित करते, नित्यमेव शांत, एक, निर्गुण और अचल हैं? सभी प्रचलित विचारों के अनुसार यह नित्य आत्मा महत्तर तत्त्व है और अभिव्यक्तिगत परमेश्वर अवर रूप हैं ‘अव्यक्त’ ही नित्य आत्मा हैं, ‘व्यक्त’ नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 12.1

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गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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