गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
12.मार्ग और भक्त
यह मन की पकड़ में नहीं आता; इसे केवल निश्चल आध्यात्मिक निवैंक्तिकता और नीवरता के द्वारा ही उपलब्ध किया जा सकता है और जो लोग केवल इसीका अनुसधान करते हैं उन्हें मन तथा इन्द्रियों के व्यापार को पूर्ण रूप से नियंत्रित करना और यहांतक कि उसे सर्वात्मना अपनी ओर समेट लेना होता है। परंतु फिर भी अपनी बुद्धि की समता के कारण सब पदार्थों में एक ही आत्मा को देखने तथा सर्वभूतों के हित में निरत नीरव चित्त की शांत दयालुता के कारण वे भी सब पदार्थों तथा सर्वभूतों के हित में निरत नीरव चित्त की शांत दयालुता के कारण वे भी सब पदार्थों तथा प्राणियों में मुझसे ही मिलते हैं जो लोग सर्वभवेन भगवान् के साथ युक्त होते हैं, और जगत् के पदार्थों के अंचित्य जीवंत स्त्रोत में, दिव्यं पुरुषमचिन्त्यरूपम् व्यापक और पूर्ण रूप से प्रवेश करते हैं, उनके समान ही इस कठिनतर ऐकांतिक एकत्व के द्वारा संबंधातीत अव्यक्त कूटस्थ की ओर आरोहण करने वाले ये जिज्ञासु भी अंत में उसी सनातन को प्राप्त करते हैं। परंतु यह कम सीधा तथा अधिक दुर्गम मार्ग है; यह अध्यात्मभावित मानव प्रकृति की पूर्ण और स्वाभाविक गति नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 12.2
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