गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द4.उपदेश का कर्म
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। “अपने हृद्देशस्थित भगवान् की, सर्वभाव से, शरण ले; उन्हीं के प्रसाद से तू पराशांति और शाश्वत पद को लाभ करेगा। मैंने तुझे गुह्य से ज्ञान बताया है। अब उस गुह्यतम ज्ञान को, उस परम वचन को सुन जो मैं अब बतलाता हूँ। मेरे मन वाला हो जा, मेरा भक्त बन, मेरे लिये यज्ञ कर, और मेरा नमन-पूजन कर; तू निश्चय ही मेरे पास आयेगा, क्योंकि तू मेरा प्रिय है। सब धर्मों का पत्यिाग करके मुझे एक ही शरण ले। मैं तुझे अपने पापों से मुक्त करूंगा; शोक मत कर।“ गीता का प्रतिपादन अपने-आपको तीन सोपानों में बांट लेता है, जिन पर चढ़कर कर्म मानव-स्तर से ऊपर उठकर दिव्य स्तर मैं पहुँच जाता है और वह उच्चतर धर्म की मुक्तावस्था के लिये नीचे के धर्म बंधनों को नीचे ही छोड़ जाता है। पहले सोपान में मनुष्य कामना का त्याग कर, पूर्ण समता के साथ अपने को कर्ता समझता हुआ यज्ञ-रूप से कर्म करेगा, यज्ञ यह वह उन भगवान् के लिये करेगा जो परम हैं और एकमात्र आत्मा हैं, यद्यपि अभी तक उसने इनको स्वयं अपनी सत्ता में अनुभव नहीं किया है। यह आरंभिक सोपान है। दूसरा सोपान है केवल फलेच्छा का त्याग नहीं, बल्कि कर्ता होने के भाव का भी त्याग और अनुभूति की आत्मा सम, अकर्ता, अक्षर तत्त्व है और सब कर्म विश्व शक्ति के, प्रकृति के हैं जो विषम, कर्त्री और क्षर शक्ति है। अंतिम सोपान है परम आत्मा को वह परम पुरुष जान लेना जो प्रकृति के नियामक हैं, प्रकृतिगत जीव उन्हीं की आंशिक अभिव्यक्ति है, वे ही अपनी पूर्ण परात्पर स्थिति में रहते हुए प्रकृति के द्वारा सारे कर्म कराते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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