गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द4.उपदेश का कर्म
परंतु प्रकृति का नियतिवाद भी गीता का अंतिम वचन नहीं हैं। मन, हृदय और बुद्धि के साथ भगवत्-चैतन्य में प्रवेश करने और उसमें रहने के लिये बुद्धि की समता और फल का त्याग, केवल साधन हैं और गीता ने इस बात को स्पष्ट रूप से कहा है कि इनसे तब तक काम लेना होगा जब तक साधक इस योग्य नहीं हो जाता कि वह इस भगवच्चैतन्य में रह सके कम-से-कम अभ्यास के द्वारा इस उच्चतर अवस्था को अपने में क्रमशः विकसित न कर ले। अच्छा तो यह भगवान् कौन है जिनके बारे में श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह मैं ही हूं? ये पुरुषोत्तम हैं, जो अकर्ता पुरुष के परे हैं, जो कत्री प्रकृति के परे हैं, जो एक आधार हैं और दूसरे के स्वामी, ये वे प्रभु हैं जिनका यह सारा प्राकट्य है, जो हमारी वर्तमान मायाशवता की अवस्था में भी अपने जीवों के हृदय में विराज रहे हैं और प्रकृति के कर्मों के नियामक हैं, ये वे हैं जिनके द्वारा कुरुक्षेत्र की समरभूमि की सेनाएं जीवित होती हुई भी मारी जा चुकी हैं और जो अर्जुन को इस भीषण संहारकर्म का केवल यंत्र या निमित्त मात्र बनाये हुए हैं। प्रकृति केवल उनकी कार्यकारिणी शक्ति है। साधक को इस प्रकृति-शक्ति और इसके त्रिविध गुणों से ऊपर उठना होगा, उसको त्रिगुणातीत होना होगा। उसे अपने कर्म प्रकृति को नहीं समर्पित करने होंगे, जिन पर अब उसका कुछ भी दावा या अधिकार नहीं है, बल्कि उसे अपने कर्म उन परम पुरुष की सत्ता में समर्पित करने होंगे। अपना मन, अपनी बुद्धि, अपना हृदय, अपना संकल्प उन्हीं में रखकर, आत्म-ज्ञान के साथ, भगवद्-ज्ञान के साथ, जगत्-संबंधी ज्ञान के साथ, पूर्ण समता, अनन्य भक्ति और पूर्ण आत्म दान के साथ उसे अपने कर्म उन प्रभु के भेंट-स्वरूप करने होंगे जो सारे तपों और समस्त यज्ञों के स्वामी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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