गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग
परंतु वे इस ब्रह्म से या ब्रह्मसत्ता की इस विस्तृत अनंतता से भी इतर हैं जिसके अंदर यह सारा विश्व है और विश्वातीत भी। सब कुछ यहाँ उन्हीं के विश्व-चेतन अनंत स्वरूप में स्थित है, पर वह स्वरूप भी भगवान् के उस विश्वातीत स्वरूप के द्वारा अपनी आत्म-कल्पना के रूप में धृत है जो स्वरूप हमारी जागतिक स्थिति, सत्ता और चेतना की वाणी के सर्वथा परे है। उनकी सत्ता का यह रहस्य है कि वे विश्वातीत हैं पर किसी प्रकार विश्व से अलग नहीं हैं क्योंकि विश्वात्मा के रूप से वे इस सबके अंदर व्याप्त हैं; भगवान् की एक ज्योतिर्मयी अलिप्त आत्मसत्ता है जिसे गीता में भगवान् ‘‘मम आत्मा” कहकर लक्षित कराते हैं, जो सब भूतों के साथ सतत संबद्ध है और केवल अपनी सत्तामात्र से अपने सब भूतभावों को प्रकट कराती है।[2] इसी भेद को स्पष्ट करने के लये आत्मा और ‘भूताति’ ये दो पद हैं-एक से वह आत्मा लक्षित होती है जो स्व-स्वरूप में अपनी ही सत्ता से स्थित है और दूसरे से अर्थात् ‘ भूतनि ’ पद से वह भूत सत्ता लक्षित होती है जो आश्रित है। ये क्षर और अक्षर पुरुष हैं। परंतु इन दो परस्पर-सापेक्ष सत्ताओं का आधारभूत परम सत्य वही सत्ता हो सकती है तथा इनके परस्पर-विरोध का निराकरण भी उसी सत्ता से हो सकता है जो इसके परे हो ; वह सत्ता है उन परम पुरुष भगवान् की जो अपनी योगमाया अर्थात् अपने आत्मचैतन्य की शक्ति द्वारा इस आधार आत्मा और आधेय जगत् दोनों को प्रकट करते हैं। और उन भगवान् के साथ अपने आत्म-चैतन्य से युक्त होकर ही हम उनके स्वरूप के साथ अपना वास्तविक संबंध जोड़ सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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