गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग
जब हम केवल इस प्रकार की भेदस्थिति में रहते हैं तब भगवान् को मानो विश्व से पृथक और इतर मानते हैं। इस प्रकार वे केवल इसी अर्थ में पृथक् और इतर हैं कि वे विश्व के परे होने के कारण विश्वप्रकृति और उसकी सृष्टियों के अंदर नहीं हैं, इस अर्थ में नहीं कि ये सब सृष्टियां उनकी सत्ता के बाहर हैं; क्योंकि सर्वत्र एकमात्र सनातन और सद्रप सत्ता ही है, उसके बाहर कुछ भी नहीं है। भगवत्सत्ता के संबंध में इस प्रथम सत्य को हम तब आत्मबोध के द्वारा अनुभव करते हैं जब हमें यह अनुभव होता है कि हम उन्हीं के अंदर रहते और चलते-फिरते हैं, उन्हीं के अंदर हमारी सारी सत्ता और सारा जीवन है, चाहै हम उनसे कितने भी भिन्न हों हमारा अस्तित्व उन्हीं पर निर्भर है और यह सारा विश्व उन्हीं परमात्मा के अंदर घटित होने वाली एक दृश्य सत्ता और व्यापार है। परंतु फिर इसके आगे, इससे परतर यह अनुभव होता है कि हमारी आत्म-सत्ता उनकी आत्मसत्ता के साथ एक है। वहाँ हम सर्वभूतों के एकमेव आत्मा को अनुभव करते हैं, हमें उसकी चेतना का अनुभव होता है और उसके प्रत्यक्ष दर्शन भी। तब हम यह नहीं कह सकते न ऐसा सोच सकते हैं कि हम उससे सर्वथा भिन्न हैं; परंतु आत्मवस्तु और इस स्वतःसिद्ध आत्मवस्तु का जगद्रूप आभास, ये दोनों पदार्थ भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं-आत्मा में सब कुछ एक अनुभूत होता है और जगद्रूप सब कुछ भिन्न-भिन्न दीखता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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