गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य
प्रकृति को त्रिगुण का अचेतन बंधन मात्र कहा गया है और जीव को उस बंधन में बंधा हुआ एक अहंभावापन्न प्राणी। परंतु प्रकति और पुरुष की यही सारी मीमांसा हो तो वे दोनों न तो दिव्य है न हो सकते हैं। उस हालत में प्रकृति, जो अज्ञ और जड़ हैं, ईश्वर की कोई शक्ति नहीं हो सकती; क्योंकि जो ईश्वरीय शक्ति अपनी क्रिया में स्वच्छंद होगी, उसका मूल आध्यात्मिक होगा और उसकी महत्ता भी आध्यात्मिक ही होगी। इसी प्रकार, जीव भी जो प्रकृति में बंधा, अहंकारयुक्त और केवल मनोमय, प्राणमय और अन्नमय है, भगवान का अंश नहीं हो सकता न स्वयं कोई अप्राकृत पुरुष ही; क्योंकि ऐसा ईश्वर-अंशभूत जीवात्मा होना उसका तभी बन सकता है जब वह स्वयं भगवत्स्वभाववाला हो, मुक्त, आत्म-स्वरूप, स्वतःप्रवृत्त और प्रवर्धमान, स्वतःसिद्ध, मन-प्राण- शरीर से ऊर्ध्व में स्थित हो। इन असंगतियों से उत्पन्न होने वाली दोनों कठिनाइयों और आवरणों को सत्य की एक प्रकाशमय किरण ने हटा दिया है। जड़ प्रकृति केवल एक अपर सत्य है, अपरा प्रकृति के कार्य की एक पद्धतिमात्र है। इससे श्रेष्ठ एक और प्रकृति है और वह आध्यात्कि है और वही हमारे वैयक्तिक आत्मस्वरूप का स्वभाव है, हमारा वास्तविक व्यक्तित्व है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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