गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य
वही भागवत संकल्प-शक्ति प्रकृति में सर्वत्र व्यापक है और प्रकृति के जो कर्म जीव के द्वारा होते हैं उनसे यह महान् है, मनुष्य और प्रकृति के कर्म और उनके फल उसीके अधीन हैं। इसलिये अर्जुन को यज्ञ के लिये कर्म करना चाहिये, क्योंकि उसके कर्मों का तथा सभी कर्मोंं का वही आधारभूत सत्य है। प्रकृति कर्मकत्री है अहंकार नहीं; पर प्रकृति उन पुरुष की केवल एक शक्ति है जो उसके सब कर्मों, शक्तियों ओर विश्व-यज्ञ के सब कालों के अधिपति हैं। इस प्रकार अर्जुन के सब कर्म उन परम पुरुष के हैं, इसलिये उसे चाहिये कि वह अपने सब कर्म अपने और अतःस्थित भगवान् को समर्पित करे जिनके द्वारा ये सब कर्म भागवत रहस्यमयी प्रकृति के अंदर हुआ करते हैं। जीव के दिव्य जन्म की, अहंकार और शरीर की मर्त्यता से निकल सनातनी ब्राह्मी स्थिति में आ जाने की यह द्विविध अवस्था है-पहले अपने कालातीत अक्षर आत्मस्वरूप के ज्ञान की प्राप्ति है और फिर उस ज्ञान के द्वारा कालातीत परमेश्वर से योगयुक्त होना है, साथ ही उन परमेश्वर को जानना है जो इस विश्व की पहैली के पीछे छिपे हैं, जो सब भूतों और उनकी क्रियाओं में स्थित हैं। केवल इसी रूप से हम अपनी समस्त प्रकृति और सत्ता समर्पित कर उन एक परमेश्वर क साथ, जो दिक्काल के अंदर यह सब कुछ बने हैं, जीते-जागते योग से युक्त होने की अभीप्सा कर सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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