गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य
सनातन पुरुष की उस परा आत्मप्रकृति में, अपने सनातन नानात्व में, सचेतन शक्ति के विविध केन्द्रों से अपने आत्मदर्शन में वे ही जीव हैं। ईश्वर, प्रकृति और जीव एक सद्वस्तु के तीन नाम हैं, और ये तीनों एक सत्ता हैं। यह सत्ता, यह सदात्मा किस प्रकार विश्वरूप में आविर्भूत होती हैं? पहले, अक्षर कालातीत उस आत्मा या ब्रह्म के रूप से जो सर्वत्र अवस्थित है और सबको आश्रय देती है, जो अपनी सनातनी सत्ता से सत्तवान् है, संभूति नहीं। इसके उपरांत, इसी सत्ता पर आश्रित, स्वयं सृष्ट होने की एक ऐसी मूलगत शक्ति या अध्यात्म तत्त्व है जिसे स्वभाव कहते हैं, जिसके द्वारा यह सदात्मा आत्मदृष्टि से अपने अंदर देखकर यह सब जो उसकी अपनी सत्ता के अंदर छिपा या समाविष्ट रहता है उसे अपने संकल्प में ले आता और प्रकट करता है, उसे उस सुप्तावस्था से निकलकर उत्पन्न करता है। वह अध्यात्म-तत्त्व या स्वभाव-शक्ति आत्मा के अंदर इस प्रकार जो कुछ संकल्पित होता है उसे अखिल विश्व-कर्म के रूप में बाहर छोड़ती है। सारी सृष्टि यही क्रिया है, स्वभाव की यही प्रवृत्ति है, यही तो कर्म है। परंतु वह यहाँ बुद्धि, मन, प्राण, इन्द्रिय और स्थूल प्राकृत विषयों की क्षर प्रकृति के रूप में विकसित हुई है जो निरपेक्ष प्रकाश से विच्छिन्न होकर अज्ञान से सीमित है। वहाँ अपने मूल रूप में इसकी सारी क्रियाएं प्रकृति में स्थित जीवात्मा की, प्रकृति में गुप्त रूप से स्थित परमात्मा के लिये यज्ञस्वरूप होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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