गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द21.प्रकृति का नियतिवाद
‘‘जबकि सब काम सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा कराये जा रहे हैं, अहंकार-विमूढ़ आत्मा समझता है कि इन्हें करने वाला तो ‘मैं’ हूँ। परंतु जो गुणों और कर्मों के भेदों के सच्चे नियमों को जानता है वह देखता है कि प्रकृति के गुण परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया कर रहे हैं। और इसलिये वह आसक्त् होकर इनमें नहीं फसता जो इन गुणों के द्वारा विमूढ़ हो जाता है, जो अकृत्स्नवित् है उसकी मनोभावना को कृत्स्नवित् विचलित न करे। तू अपने सब कर्म मुझे समर्पित कर, निरीह, निर्मम और विगतज्वर होकर, युद्ध कर।”[1] यहाँ चेतना के दो भिन्न स्तरों और कर्म के दो विभिन्न दृष्टिबिंदुओं में स्पष्ट भेद किया गया है। एक स्तर वह है जहाँ जीव अपनी अहमात्मक प्रकृति के जाल मे जकड़ा है और प्रकृति से प्रेरित होकर कर्म करता है पर समझता है कि मैं अपनी स्वाधीन इच्छा से कर रहा हूँ। दूसरा स्तर वह है जिसमें जीव अहंकार के साथ तादात्म्य से मुक्त, प्रकृति से ऊपर उठा हुआ और उसके कर्मों का द्रष्टा, अनुमंता और नियंता है। हम जीव को प्रकृति के अधीन कहते हैं, पर गीता, इसके विपरीत, पुरुष और प्रकृति के लक्षणों का विश्लेषण करते हुए बतलाती है कि प्रकृति कार्यकरी शक्ति है और पुरुष सदा ही ईश्वर है। यहाँ गीता ने बतलाया है कि यह पुरुष अहंकार से विमूढ़ हो जाता है, परंतु वेदांतियों का सदात्मा ब्रह्म, नित्यमुक्त, शुद्ध, बुद्ध है। तब यह जीव क्या है जो प्रकृति से विमूढ़ होता है, उसके अधीन रहता है? इसका उत्तर यह है कि यहाँ हम वस्तुओं के संबंध में अपनी निम्नतर या मानसिक दृष्टि की व्यावहारिक भाषा में बात कर रहे हैं, प्रतीयमान आत्मा या पुरुष की बात के अधीन होता है, और यह अपरिहार्य है, क्योंकि वह प्रकृति का ही अंग है, उसके कलपुर्जों की एक क्रिया है; परंतु जब मनश्वेता का आत्मबोध अहंकार के साथ तादात्म्य कर लेता है तो वह निम्नतर आत्मा के, एक अहमात्मक स्व के आभास की सृष्टि करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3.30
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज