गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द21.प्रकृति का नियतिवाद
हमारी सत्ता के विषय में यह मत सांख्य के उस विश्लेषण से शुरू होता है, जिसमें हमारे स्वभाव के द्विविध तत्त्व पुरुष और प्रकृति बताये गये हैं। पुरुष अकर्ता है, प्रकृति कर्त्री है। पुरुष वह सत्ता जो चैतन्य के प्रकाश से भरपूर है, प्रकृति जड़ है और अपने सब कर्म चिन्मय साक्षी पुरुष में प्रतिभासित करती है। प्रकृति के ये कर्म उसके गुणों की विषमता के द्वारा होते हैं और सदा एक-दूसरे से टकराते, एक-दूसरे में मिलते और एक-दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं। और प्रकृति की अहं-बुद्धि का कर्म पुरुष को इन कर्मों के साथ एकात्म करके आत्मा की प्रशांत सनातन सत्ता में कर्ता, विकारी, क्षणस्थायी व्यष्टि-पुरुष के होने की प्रतीति उत्पन्न करता है। अशुद्ध प्राकृत चेतना विशुद्ध आत्मचैतन्य को मेघाच्छादित कर देती है, मन अहंकार और व्यक्तित्व में ‘पुरुष’ को भूल जाता है। हम अपनी विवेक-बुद्धि को इन्द्रियश्रित मन और उसकी बहिर्मुखी क्रियाओं तथा प्राण शरीर की कामनाओं के साथ बह जाने देते हैं। जब तक पुरुष इस प्रकार की क्रिया को अनुमति देता है तब तक अहंकार और कामना तथा अज्ञान ही हमारी प्राकृत सत्ता का नियंत्रण करते हैं। परंतु यदि इतनी ही बात होती तो इसकी यही दवा है कि हम अनुमति देना बंद कर दें और इस तरह अपनी सारी प्रकृति को त्रिगुण की निश्चल साम्यावस्था में जा गिरने दें या गिरने के लिये बाधित करें और इस प्रकार सब कर्म समाप्त हो जायें। परंतु ठीक यही वह दवा है जिसका प्रयोग करने के लिये गीता हमें निरूत्साहित करती है, क्योंकि यद्यपि यह दवा तो है, पर है ऐसी जो रोग के साथ रोगी का भी खातमा कर देती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3.30
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