गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द14.दिव्य कर्म का सिद्धांत
हो सकता है कि बाह्मतः उसके और अन्य मनुष्यों के कर्मों में कोई मौलिक अंतर न हो; युद्ध शासन, शिक्षादान, और ज्ञानचर्चा, मनुष्य के साथ मनुष्य के जितने विभिन्न प्रकार के आदान-प्रदान हो सकते हैं। वे सभी उसके हिस्से पड़ सकते हैं। पर जिस भाव से वह इन कर्मों को करेगा वह अंश भिन्न होगा और उसीका यह प्रभाव होगा कि लोग उसकी ऊंची स्थिति की और खिंचे चले आयेंगे, यह मानव समूह के आरोहण में एक बड़े उत्तोलक यंत्र का काम देगा। मुक्त मनुष्य के लिये भगवान् ने जो अपना दृष्टांत रखा वह गंभीर अर्थपूर्ण है; क्योंकि इस दृष्टांत से दिव्य कर्मों के बंधन में गीता का आधार संपूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है। मुक्त पुरुष वही है जिसने अपने-आपको भगवत प्रकृति में उठा लिया है और उसी भागवत प्रकृति के अनुसार सब कर्म करता है। पर यह भागवत प्रकृति है क्या? वह पूरी तरह अपने-आपमें केवल अचल, अक्रता, नैर्व्यक्तिक, अक्षर, ब्रह्म की ही प्रकृति नहीं है; क्योंकि यह भाव मुक्त पुरुष को निष्क्रिय निश्चलता की और ले जायेगा। यह केवल विविध, व्यष्टिगत, प्रकृतिबद्ध क्षर पुरुष की प्रकृति भी नहीं है, क्योंकि ऐसा ही जो तो मुक्त पुरुष फिर से अपने व्यष्टितव के तथा अपरा प्रकृति और उसके गुणों के अधीन हो जायेगा। यह भागवत प्रकृति उन पुरुषोत्तम की प्रकृति है जो अक्षर भाव और क्षर भव दोनों को एक साथ धारण करते और अपनी परम दिव्यता के द्वारा एक भागवत सांमजस्य में इनका समन्वय करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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