गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द14.दिव्य कर्म का सिद्धांत
वे प्रकृति के किसी गुण या कर्म से बधे नहीं हैं, न वे हमारे व्यक्तित्व की तरह प्रकृति के गुणधर्मों के समूहों से तथा मानसिक, नैतिक, भावावेगमय, प्राणमय और भौतिक सत्त्ता की लाचणिक क्रियाओं से बने हैं। वे तो समस्त धर्मों और गुणों के मूलों और किसी भी गुण या धर्म को अनिच्छा के अनुसार जब चाहें, जितना चाहें जिस प्रकार चाहें विकसित करने की क्षमता रखते हैं, वे वह अनंत सत्ता हैं जिसके वे सब भूतभाव हैं। वह सत्ता अपरिमेय राशि और असीम अनिर्वचनीय तत्त्व है जिसके ये सब परिमाण, संख्या और प्रतीक हैं और जिसको ये विश्व के मानदंड के अनुसार छंदोबद्ध और संख्याबद्ध करते हैं। फिर भी वे कोई नैर्व्यक्त्कि अनिदिंष्ट सत्ता ही नहीं हैं, न केवल ऐसी सचेतन सत्ता है जहाँ से समस्त निर्देश और व्यष्टिभाव अपना उपादान प्राप्त करते रहें, बल्कि वे परम सत्त्ता हैं, अद्वितीय मूल चिन्मय सत्य हैं, पूर्ण पुरुष हैं जिनके साथ अत्यंत स्थूल और घनिष्ठ सभी प्रकार के मानव-संबंध स्थपित किये जा सकते हैं; क्योंकि वे सुहृद सखा, प्रेमी, खेल के संगी, पथ के दिखाने वाले, गुरु, प्रभु, ज्ञानदाता, आनंददाता हैं और इन सब संबधों में रहते हुए भी इनसे अलिप्त, मुक्त और निरपेक्ष हैं देवनर भी, अपनी यथाप्राप्त सिद्धि के अनुसार व्यक्तिभाव में रहते हुए नैर्व्यक्तिक ही, सांसारिक जनों के साथ सब प्रकार के अत्यंत वैयक्त्कि और घनिष्ठ संबंध रखते हुए भी गुण या कर्म से सर्वथा अलिप्त, धर्म का बाह्मतः आचरण करते हुए उससे अनासक्त ही, रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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